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गुरुनानकदेव जी–डॉ. श्रीमती तारा सिंह

 

   सिक्ख पंथ के प्रवर्तक , निर्गुण मत के प्रसिद्ध संत, नानकदेव जी सिक्खों के पहले गुरु थे | उनका जन्म लाहौर से 30 मील दूर तलवंडी स्थान में 1526 में हुआ था | इस स्थान को अब नानक के नाम पर ‘ननकानासाहब’ भी कहते हैं | अंधविश्वास और आडम्बरों के कट्टर विरोधी गुरुनानकदेव जी का जन्म प्रत्येक कार्तिक पूर्णिमा को प्रकाश उत्सव के नाम से मनाया जाता है , अर्थात् यही इनकी जन्मतिथि है | इस अवसर पर भारत के सिक्ख श्रद्धालुओं का जत्था प्रति वर्ष वहाँ जाते हैं और जाकर अरदास करते हैं |

            कबीर के भावों का साम्य गुरुनानकदेव जी भी राम-नाम के ताप को महत्त्व देते हैं | बचपन से ही वे आध्यात्मिक प्रवृति के थे तथा अपनी बाल्यावस्था में ही जब-तब अपनी आँखें बंदकर चिंतन-मनन करने बैठ जाते थे , जिसे देखकर उनके पित़ा कालू और माता तृप्ता चिंतित रहा करती थीं | नानकदेव जी ,भक्त को ‘सोहागिनी’ , और हरि को ‘वर’ , कहते हैं—-

           बिनु हरिनाम कोउ मुकुति न पावसि

           डूबी मुए बिन पानि ||

गुरुनानकदेव जी  पुस्तक पढने वाले पंडित की भी हँसी उड़ाते हैं | वे बिना राम-नाम और भक्ति के इस पुस्तकीय विद्या को व्यर्थ मानते हैं | वे कबीर के समान , कहते हैं —

  पुस्तक  पाठ  व्याकरण  बखानै , संधि आ करम त्रिकाल करै

  बिन गुरु सबद मुक्ति कहा ,प्राणी राम-नाम बिनु अरूछि मरै ||

                  बचपन में उनकी प्राथमिक शिक्षा के लिए उनके माता-पिता ने , जाने-माने गुरु हरदयाल के पास उनको भेजा, लेकिन गुरुजी बालक नानक के प्रश्न पर कभी-कभी निरुत्तर हो जाया करते थे | वे समझ गए थे , कि इतनी छोटी उम्र में ऐसे विचित्र ( अध्यात्म से जुड़े ) प्रश्न , कोई तभी कर सकता है , जिसका गुरु स्वयं ईश्वर हो | बड़े होने पर उनका विवाह , बटाला निवासी की कन्या , ‘सुलक्षणी’ से हुआ | उनके दो पुत्र श्रीचंद और लक्ष्मीचंद थे | उनके पित़ा ,उन्हें कृषि , व्यापार में लगाना चाहे, लेकिन वे घर में रहकर भी घर के घेरे में बंध न सके | वे अपने जीविकोपार्जन हेतु दौलत खां ,सुल्तानपुर के गवर्नर के यहाँ मोदी का काम करने लगे | बाद में विरक्ति जगने पर वे सब कुछ छोड़कर उपदेश करने लगे  और घूम -घूमकर भारत के भिन्न – भिन्न प्रांतों में जा-जाकर अपने मत का प्रचार करने लगे | बाद में उन्होंने मक्का-मदीना आदि मुस्लिम तीर्थस्थानों की  भी धर्मयात्रा की |

वे अपने समय के विदेश जाने वाले प्रथम संत थे | वे जात-पात को समाप्त करने, तथा सबों को एक दृष्टि से देखने की दिशा में कदम उठाते हुए , लंगर की प्रथा शुरू किये | लंगर में , छोटे-बड़े , गरीब-अमीर , ब्राह्मण-शूद्र सभी एक साथ पंक्ति में भोजन करते थे , जो कि आज भी गुरुद्वारे में प्रचलित है |

अनहद का बाजा आदि का वर्णन ‘विराट पुरुष का सगुण रूप’ , अत्यंत मनमोहक है | गुरुनानकदेव के व्यक्तित्व की विशेषता यह है, कि वे गृहस्थ और विरक्त, राजयोगी धर्म सुधारक , संत और भक्त कवि एवं

संगीतग्य सभी थे | उनकी परमात्मा की आरती बड़ी भावपूर्ण है, लिखते हैं ——

 ‘गगन मै थालु रवि चंदु , दीपक बनै  तारिका मंडल जनक मोती

 धुपु   मलयानलो  पवणु  चवरो   करै ,सगल बनराय  फुलत जोती

 मलयानिल का धुप,पवन चँवरे करै करना,सगल बनराइ फूलंत जोती |’

गुरुनानक जी के उपदेश ————-

  • ईश्वर एक है |
  • सदैव एक ही ईश्वर की उपासना करना चाहिये |
  • ईश्वर सब जगह, सब प्राणी में है |
  • ईश्वर की भक्ति करने वालों को,किसी का भय नहीं रहता |
  • ईमानदारी और मेहनत कर अपना पेट भरना चाहिए |
  • न किसी का बुरा करें, न किसी से बुरा करने कहें |
  • सदैव प्रसन्नचित्त रहना चाहिए | ईश्वर से सदा अपने लिए क्षमा माँगनी चाहिये |
  • अपनी मेहनत और ईमानदारी में से कुछ अंश निकालकर ,जरूरतमंदों की सहायता करनी चाहिए |
  • स्त्री और पुरुष , दोनों बराबर हैं |
  • भोजन ज़िंदा रहने के लिए खाना चाहिए , लोभ-लालच और संग्रह-वृति बुरी है |

           गुरुनानकदेव कई हिन्दू , बौद्ध-धर्मों के तीर्थस्थलों की यात्रा के बाद , मक्का की यात्रा अपने शिष्य मरदाना के साथ हाजी का वेश धारण कर किये थे | इस यात्रा का विवरण कई ग्रंथों और ऐतिहासिक किताबों में मिलता है | ‘’बाबा नानक शाह फ़क़ीर’’ में हाजी ताजुद्दीन नक्श्वन्दी ने लिखा है , कि वे गुरुनानक से हज-यात्रा के दौरान ईरान में मिले थे | जैन- उ-लनदीन की लिखी  ‘’ तारीख अरब

ख्वाजा ‘‘ में भी गुरुनानक देव जी के मक्का-भ्रमण का जिक्र है | हिस्ट्री ऑफ़ पंजाब आफ सिक्ख वारभाई गुरुदास और सौ साखी, जन्मसाखी में भी नानकदेव जी  की मक्का -यात्रा का विवरण है |

                     कहते हैं , नानकदेव जी के एक शिष्य था, नाम था मरदाना ; जो कि मुसलमान था | उसने नानकदेव जी से कहा, उसे मक्का जाना है , क्योंकि जब तक एक मुसलमान मक्का नहीं जाता ; तब तक वह सच्चा मुसलमान नहीं कहलाता है | गुरुनानकदेव जी उसे स्वयं अपने साथ लेकर मक्का गए | वहाँ पहुँचकर वे बहुत थक चुके थे | वे हाजियों के लिए बने आराम-गृह में जाकर मक्का की तरफ पैर करके लेट गए | यह देखकर हाजियों की सेवा करने वाला  ( नाम था जियोन ) बहुत गुस्सा में आ गया और बोला— गुरुजी आप जिधर पैर रखे हैं, उधर मक्का है | इस पर गुरुजी बोले —- ठीक है, जिस तरफ खुदा नहीं है , उसी तरफ मेरा पैर कर दो | तब जियोन को समझ में आया, कि खुदा एक दिशा में नहीं, वे तो हर तरफ हैं | उसके बाद गुरुजी ने कहा—- जियोन , अच्छा कर्म ही खुदा की सच्ची भक्ति है | यही सच्चा सदका है |

       सिक्ख धर्म के संस्थापक गुरुजी ने जब देखा, दुनिया में बहुत अंधकार है, फैला हुआ, सत्य का नामोनिशान नहीं है ; धर्म गुरुजी , धर्म के प्रचार के लिए घर त्याग दिए , और चारो दिशाओं की लम्बी यात्रा की ; जिन्हें चार उदासियाँ कहा जाता है | कहते हैं , इस यात्रा के दौरान मिले, कौड़ा राक्षस और सज्जन जैसा ठग , गुरूजी की प्रेरणा से सत्यवादी बन गए | गुरुजी पहाड़ों, बीहड़ों , गुफाओं में बैठे, योगियों तथा सिद्धियों से भी मिले तथा उनसे भी यही प्रार्थना किये ,कि आप दुनिया में जाकर लोगों को परमात्मा के साथ जोड़ने का काम करें |

                 गुरुनानक देव जी अपने शिष्य मरदाना के साथ 28 सालों तक पैदल यात्राएँ कर लगभग 60 शहरों का भ्रमण किया | मक्का यात्रा चौथी और उनकी अंतिम यात्रा थी | अपनी यात्राएं पूरी कर वे करतारपुर साहिब आ गए और उदासियों का वेश उतारकर संसारी वेश धारण कर लिए तथा अपनी खेतीबाड़ी करने लगे | 1539 में आप करतारपुर साहिब में अपनी गद्दी का भार ( अंतिम काल में ) अंगदेव को सौंप परम ज्योति में मिल गए |

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