हम विहग चिर क्षुद्र
हम विहग चिर क्षुद्र, सम्पूर्ण नग्न
हमारे पास न अन्न,वसन, न धन
हमारी उम्र होती बहुत छोटी
जिंदगी के दिन होते, बहुत कम
इधर जनम , खोला नयन
उधर मृत्यु, मुँद देती तत्क्षण
फ़िर भी सृष्टि से हमारी कोई शिकायत नहीं
मानव से बैर नहीं, कोई विरक्ति नहीं
न ही कभी ,अपनी बदकिस्मती से खीझा मन
बल्कि सहज स्पंदित हो, यह अग जग
आये न कोई बाधा, बिघटन, सोच
नभ की निखिल विघ्न –बाधाओं को पारकर
खोल क्षितिज का स्वर्णद्वार,स्वर्गदूतों को अपने
भावों से बाँधकर, हम लाते धरा पर उतार
जिससे यह धरती स्वर्ग – खंड बनी रहे, सुख
से निनादित रहे, विश्व के अक्षयवट की डाल
ग्यान चेतन से बंचित रहकर भी हम
प्रकृति स्फ़ूर्ति से प्रेरित रहता हमारा मन
हम सहज चुन, लघु तृण, खर- पात
शिल्पी सा तरु की डाली पर बना कर नीड़
करते खग कुल मिलकर , उस पर वास
रक्त- सिक्त धरती के दु:स्वप्न का हो समापन
तृषा की आग में पड़कर, न पिघले कोई जन
मानवता में मुकलित हो, धरती का आनन
मरुस्थल में भी निर्झर सा,जीवन ज्योति उतरे
पावन हो बालुका का कण- कण
फ़ुदक- फ़ुदककर, सुप्त जग को, स्वप्निल
गान सुनाकर , हम नीद से जगाते
दिशि - दिशि में कलरव कर , अतृप्त
मन में सोल्लास भरते,भवसागर और न हो
दुस्तर, खोल अपना मन पिंजर
मनुज त्वचा सीमा से निकले बाहर
इसका हम अगम प्रयास करते
धरा –अम्बर का प्रीति-प्यार बना रहे
नभ –भू का छोर आपस में जुड़ा रहे
स्वप्न में सोया रहता जब प्रभात
उसके पहले ही हम जाग,गूढ़ संकेतों
में हिलाकर पात, नभ में गान भर देते
जिससे छोड़ निर्जन का निभृत निवास
जग नीड़ से आनंद आ बँधे
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