हर तरफ़ चल रही नफ़रतों की आँधियाँ देखा
आँगन बीच कुआँ, भाइयों के दरम्यां देखा
इनसानियत का लहू बहता नहीं, अब आदमी के
सिरा में, मज़हब के नाम कत्ल होते इन्सां देखा
किस बेरहम के अलफ़ाज़ की यह कहर है
दिन की छाती पर,रात के गमों की सुर्खियाँ देखा
हम पूजते थे जिसे समझकर अपना रहनुमा
उसके जिस्म से उठता नफ़रतों का धुआँ देखा
अब क्या करना, उसके कूचे में शोर-ए-कयामत
का ज़िक्र, दर्द से कराहता सारा जहाँ देखा
यादें कब्र बनकर रह गई,हमारे दिल में,कितने ही
बनते – बिगड़ते नफ़रतों की बस्तियाँ देखा
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