हमारे देश में कथा-कहानियाँ सुनाने की परम्परा बहुत ही प्राचीन है, और किसी भी प्राचीन वस्तु का मूल खोज पाना बहुत ही कठिन होता है । बावजूद लोग इसे वेदों से, कहानियों का आरम्भ मानते हैं । उसके बाद पुरानों में तो हमें स्पष्ट आख्यान मिलते ही हैं । ये आख्यान सामाजिक, आर्थिक, काल्पनिक और शिक्षाप्रद हैं । इसके बाद पंचतंत्र, हितोपदेश, कथा सरित-सागर, बृह कथा, बैताल, पंचविशति आदि पुस्तकें तो हैं ही , संस्कृत- साहित्य की ये कहानी-परम्परा प्राकृत तथा अपभ्रंश साहित्य में भी निरंतर विकसित होती गई हैं ।
अधिकांश इतिहासकारों के मुताबिक , किशोरीलाल गोस्वामी की इंदुमती ( सन 1900 ) में प्रकाशित हुई थी; उसे ही हिंदी की प्रथम आधुनिक कहानी स्वीकारी गई । ऐसी बात नहीं है कि इसके पहले, किसी ने हिंदी में कहानियाँ लिखने की कोशिश नहीं की , लेकिन आदर्शवाद , चमत्कारमूलक कल्पना के कारण उन्हें आधुनिक कहानियों कि पंक्ति में खड़ा नहीं होने दिया गया ; जो भी हो, हिंदी कहानी के विकास और आरम्भकाल को तीन भागों में बाँटा गया है-----
(1 ) आरम्भकाल ------1900 से 1910
( 2 ) विकासकाल---- 1911 से 1946
( 3 ) उत्कर्षकाल----- 1947 तक
आरम्भकाल में किशोरी लाल की ” इंदुमती’ , शुक्ल जी की ’ग्यारह वर्ष का समय”, बंगला में ’ दुलाई वाली’, गिरजादत्त जी की ’ पंडित और पंडितानी’ रची तथा प्रकाशित हुई है । इन कहानियों में कथावस्तु, चरित्र-चित्रण, वातावरण आदि सभी में आधुनिकता की झलक मिलती है । इस काल में अनेकों कहानियाँ अन्यान्य भाषा में अनुवाद की गईं, इसलिए इस काल को अनुवाद काल भी कहा गया है ।
विकासकाल------ इस काल में सर्वप्रथम गुलेरी जी की ’सुखमय जीवन’ ( जो कि उनकी पहली कहानी थी ) प्रकाशित हुई । उसके बाद तो रचनाकारों की ढ़ेरों कहानियाँ प्रकाशित हुईं; उनमें प्रेमचन्द्र, सुर्यकांत त्रिपाठी निराला, भगवती प्रसाद बाजपेयी, पंडित बेचन शर्मा आदि थे । प्रेमचन्द्र की ’पंच परमेश्वर’, और गुलेरी जी की ’ उसने कहा था’, सच्चे अर्थों में आधुनिकता के विकास-क्रम का आरम्भ माना जाता है । इस विकास काल में प्रेमचन्द्र जी अतुलनीय थे ; गुण , परिणाम और दृष्टि के नजरिये से इनका कोई दूसरा जोड़ नहीं था ।
14 सितम्बर 1949 को काफ़ी विचार-विमर्श के बाद यह निर्णय लिया गया, जो कि भारतीय संविधान के भाग 16 के अध्याय की धारा 343 (1) में वर्णित है, ’संघ की राजकीय प्रयोजनों के लिए प्रयोग होने वाले अंकों का रूप अंतर्राष्ट्रीय रूप होगा ’ । चूँकि यह निर्णय 14 सितम्बर को लिया गया; इसलिए 14 सितम्बर , हिंदी दिवस के रूप में मनाया जाता है , लेकिन जब इसे लागू करने की बात आई, तब गैर हिंदी भाषी राज्य पुरजोर विरोध करने लगे । जिस कारण हिंदी आज भी अंग्रेजी भाषा की बैशाखी लिये चलती है, वह भी कुछ राज्यों में, कुछ राज्य तो इतना भी नहीं स्वीकार सके ।
पूरे विश्व में हिंदी भाषा का चौथा स्थान है, जो स्पेनिश , अंग्रेजी और चीनी भाषा के बाद दुनिया में सबसे बड़ी भाषा है । इसे समझने और बोलने वालों की संख्या दिनोंदिन घटती जा रही है । लोग अंग्रेजी की तरफ़ अधिक आसक्त हो रहे हैं , जो कि बहुत ही चिंताजनक है । हिंदी भाषा पर अंग्रेजी इस कदर हावी होती जा रही है कि कई शब्द तो हिंदी से हट भी गये हैं , और उसका स्थान अंग्रेजी ले लिया है । इससे भविष्य में हिंदी भाषा के विलुप्त हो जाने का खतरा मड़रा रहा है । कई लोग तो ऐसे भी हैं जो खुद को अधिक विद्वान दिखाने हेतु , सामान्य बोलचाल में भी अंग्रेजी शब्दों का उपयोग करते हैं । ऐसी व्यवस्था के उपेक्षा-स्वरूप ही हमारी हिंदी विदेशी और विदेशी भाषा अंग्रेजी हिंदी बनती जा रही है । बावजूद मुझे खुशी होती है, यह जानकर कि स्वाधीनता के उपरांत हिंदी कहानियों में कुछ नवीण प्रवृतियाँ उभरकर हमारे सामने आईं । इस काल में आँचलिक कहानी, तथा नई कहानी , का उद्भव हुआ । आँचलिक कहानी में प्रदेश विशेष के जन-जीवन तथा वातावरण का यथार्थ चित्रण रहता है । भाषा भी प्राय: वहीं के आँचलिक शब्दों से भरपूर रहती है, इसमें ’ रेणू’ का नाम प्रथम आता है ।
आज हिंदी कहानी में आदर्शवाद को महत्व न देकर घटना जाल से मुक्त छोटी कहानियाँ लिखी जा रही हैं । इनमें मानव मन का, मन पर पड़ने वाले प्रभावों का ही प्रमुखत: वर्णन रहता है । आज तक हिंदी कहानी में , शैली की दृष्टि से डायरी शैली, पत्र शैली , रेखाचित्र शैली, संवाद शैली, पूर्वदीप्ति, पुनरीक्षण –पद्धति आदि अनेक शैलियाँ अपनाई गई हैं । पुरानी, ऐतिहासिक, वर्णात्मक शैली समाप्त हो चुकी है । वर्तमान कहानी में अनेक घटनाओं का संयोजन नहीं रहता, इसमें तो किसी एक मार्मिक प्रसंग या क्षण- बोध द्वारा पात्र के अंतरंग विश्लेषण पर बल दिया जाता है, जिसके कारण कहानियों में अनावश्यक वर्णन विस्तार नहीं रहता । मेरे कहने का सार यह है कि आज की कहानियों में मनोवैग्यानिक प्रकाश में चरित्र –विश्लेषण प्रमुख रहता है ।
हिंदी एक ऐसी भाषा है, जिसके माध्यम से हम किसी प्रांत के भाषा-भाषी के साथ अपना सम्पर्क कर सकते हैं । हिंदी , इसलिए नहीं बड़ी है कि भारत में हिंदी बोलने वालों की संख्या अधिक है, बल्कि इसलिए बड़ी है,कि इस देश की करोड़-करोड़ जनता के हृदय की भूख मिटाने का एक जबरदस्त माध्यम है । यही कारण है कि कश्मीर से कन्याकुमारी तक साक्षर से निरक्षर तक प्रत्येक वर्ग का व्यक्ति इस भाषा को बोल –समझ लेता है । इसलिए हिंदी को सामान्य जनता की भाषा अर्थात जन भाषा कहा गया है । अत: हिंदी दिवस मनाने के पीछे एक यह भी उद्देश्य है कि शासकीय एवं
व्यवहार के लिए जनभाषा का ही प्रयोग हो न कि अपनी सुविधानुसार अंग्रेजी भाषा का । यदि महात्मा गाँधी, स्वामी दयानंद सरस्वती, पंडित मदन मोहन मालवीय, आचार्य केशव सेन, काका कालेलकर जैसे अनेक महान व्यक्तियों के अनेक वर्षों के किये गए अथक प्रयासों से हमें हिंदी को राष्ट्रभाषा कहने का अधिकार मिला है , तो हम उन्हें क्यों छोड़ें ; जहाँ पराई भाषा अंग्रेजी को सहराष्ट्रीय भाषा का अधिकार प्राप्त है ।
हिंदी, जब कि हमारी मातृभाषा है, तो इसका सम्मान करना भी हमारा फ़र्ज बनता है । दुख है कि हिंदी अपने ही घर में अपनी महत्ता खोती जा रही है । लोग हिंदी के वनिस्पत अंग्रेजी पढ़ने और बोलने में ज्यादा रुचि लेने लगे हैं । उनकी सोच ऐसी बन चुकी है, कि वे हिंदी जानते हुए भी हिंदी इसलिए नहीं बोलते , कि कहीं हमारा कद छोटा न हो जाय । अपने इस हीन विचार पर आज ऐसे मानसिकता वाले लोगों को एक गंभीर विचार करने की जरूरत है, मात्र हिंदी की दुहाई देने से काम नहीं चलेगा ।
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