इसे क्या कहूँ
मेरे जीवन अतीत के किस
विकल क्षण का है यह परिणाम
कौन चुपके से आकर मेरे नयन
नील – निशा में कर गया विश्राम
जिसके लिए मेरा मन कलिका-
कलुषित होकर जीता,पाता नहीं आराम
जिसकी स्मृति का मृदु खुमार
मेरे दृग के कंज कोष पर
छाया रहता दिन औ रात
जो मेरी चेतना की परिधि बन
चौबीसों पहर घूमता रहता चक्राकार
मेरे प्राणों को अपने प्रणय के
लौह अंकुश से बेधकर बरबस
खींच मुझे जग से ले जाता दूर,कहता
जिस जीवन का तुम अर्थ खोजती हो
देखो, वो सब मिलेंगे यहाँ भरपूर
मंथन के तरंग आसन पर बैठकर
जब सोचती हूँ मैं ,इसे अपने पूर्व
जनम का संचित पुण्य कहूँ
या कहूँ अपना स्पृहणीय अतीत
जो दर्द बनकर मेरे हृदय के समीप
रहता , आनंद बन गाता गीत
प्यास बन शिरा - शिरा में दौड़ लगाता
जिंदगी के तिमिर पारावार में
आलोक प्रतिमा सा खड़ा रहता अकम्पित
कभी अपने साधों से निर्मित कर मधुहाला
मेरे अधर से लगाकर कहता, प्रणय लहर में
बहकर जो आ जाये,उसे जीत सकोगी तो जीत
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