ईश्वर ! मेरी रक्षा करना
माधोपुर गाँव के धनीराम को कौन नहीं जानता था ! सत्तरहवां बहार देखने के बाद भी सुगठित शरीर, अच्छा स्वास्थ्य , रूपवान , विनोदशील , संपन्न , गले में रेशम की चादर डाले, माथे पर केसर का अर्ध लम्बाकार तिलक; चाहते तो तुरंत दूसरा विवाह कर सकते थे | मगर जब से उनकी पत्नी का देहांत हुआ, वे दुनिया से विरक्त हो गए; सिर्फ अपने व्यवसाय तक सीमित रहने लगे | उनका मानना था,व्यवसाय और धर्म दोनों अलग-अलग चीजें होती हैं ; व्यवसाय में सफलता पा जाने से किसी का जीवन सफल नहीं हो जाता | सफल मनुष्य तो वो है, जो दूसरों से अपना काम भी निकाले, और उन पर एहसान भी रखे | ऐसे भी व्यापार में , धोखा-धडी, छल-प्रपंच सब कुछ क्षम्य है , क्योंकि इस संसार में जिंदगी जीना एक संग्राम है | इस क्षेत्र में विवेक, धर्म और नीति का गुजर नहीं है | यह कोई धर्म-युद्ध नहीं है , इसलिए यहाँ कपट, दया, फरेब सब कुछ उपयुक्त है | सीधा -सपाट निर्विघ्न चलने के लिए रास्ते पर के पत्थर को हटाना तो पडेगा ही, क्योंकि मरने से मारना ही सुगम है |
पर धनीराम के पुत्र सर्वेश की सोच बिलकुल उलट थी | उसका मानना था, कोई लाख बुरा हो, उसके प्रति आदमी को अपनी दया और धर्म नहीं छोड़ना चाहिए | यद्यपि ऐसे व्यवहार-कुशल मनुष्य संसार के भाग्य से उसकी रक्षा के लिए, बहुत थोड़े से उत्पन्न लेते हैं | संसार में जीने के लिए, लक्ष्य धनोपार्जन नहीं, बल्कि यथोपार्जन होना चाहिए ; सरल संतोषमय जीवन के सामने धन-लालसा तुक्ष है |
इस तरह के न्याय और सत्य के निर्भीक समर्थक समझे जाने वाले, सर्वेश का पारिवारिक जीवन सुखमय नहीं था | अपनी पत्नी संध्या से आये दिन शक्की, धैर्य-शून्य प्राणियों के अपशब्द सुनने पड़ते थे | कभी-कभी तो उसकी गगनभेदी निर्घोष, सर्वेश को घर के कोने में चिंताओं और कल्पनाओं से परिपूर्ण होकर, दुबके, सहमे रहने के लिए बाध्य कर देता था | इससे बचने के लिए वे अपना ज्यादा से ज्यादा समय ऑफिस में ही बिताना अच्छा समझते थे | उनके घर में शान्ति क्या, शान्ति की छाया तक नहीं थी | शांति केवल एक कल्पना-
मात्र थी, जो अत्यंत भावमय, मनोरम और अनुरागपूर्ण थी | मगर आज ऑफिस
से लौटने के बाद , घर के वातावरण में उस शान्ति की कल्पना और मधुरस्मृति का अंत कर दिया, जिसकी याद पर सर्वेश जान देते थे | आज उसकी सत्ता से भयभीत, कदाचित उसके सामने से आकाश लुप्त हो जाता, पाँव के नीचे से धरती खिसक जाती , तब भी उसे इतना विस्मय नहीं होता | पर घर के आँगन में मूर्त्तिवत सोचने लगे --- ईश्वर ! कहीं ये तूफ़ान आने के पहले की सूचना तो नहीं, अगर ऐसा है तो तुम मेरी रक्षा करना !
अचानक सर्वेश को लगा, कहीं मेरी चुप्पी ही आज के तूफ़ान का कारण न बन जाए | उसने पत्नी संध्या से जाकर कहा ------ कुछ खाने को मिलेगा ?
सीमा ने दो रोटी और दाल लाकर सामने रखती हुई कही ----- खा लो, आज सब्जी नहीं है |
सर्वेश ने अपराधी भाव से उत्तर देते हुए कहा------ रोटी-दाल क्या कम है ? जो शांति से सत्तू खाने मिल जाये , तो हलुवा-पुरी की क्या जरुरत है ?
संध्या ने बड़ी-बड़ी आँखों से तरेरा, मानो सोच रही हो कि उन पर दया करूँ या गुस्सा | उसके बाद विलाप करने लगी ----- इस घर में आकर मैंने क्या-क्या नहीं झेला, किस-किस तरह पेट-तन नहीं काटा , किस तरह एक-एक पैसा प्राणों की तरह सींची; आज उन सब बलिदानों का यह इनाम |
सर्वेश दीनभाव से संध्या से गिरगिराते हुए कहा ----- संध्या, मेरे कहे का नाहक गलत अर्थ लगा रही हो ; पड़ोसी सुनेंगे तो क्या कहेंगे, दिन तो दिन, रात को भी इसके घर शांति नहीं रहती | इतना बोलकर वे अपने कमरे में सोने चले गए |
रात का तीसरा पहर था | अचानक सर्वेश को याद आया कि आज शनिवार है | आज ही तो रामचरण को पैसा तो लौटाना था ; लौटाया या नहीं , यह जानने की व्यग्रता उसमें इतनी बढ़ गई कि बगल में सो रही , पत्नी संध्या से उठाकर पूछ लिए----- क्या रामचरण पैसे लौटा दिये ? सर्वेश का पूछा ख़तम भी नहीं हुआ था, कि संध्या सर्पनी की तरह फुफकार उठी, उसे सर्वेश के कथन में शक का आभास हुआ | इसे वह कैसे स्वीकार करती, बोली ------ तुम्हारे पूछने
का आशय यही है कि रामचरण तुम्हारा बकाया पैसा जो लौटा गया, मैं उसे दबा गई ? सर्वेश, अगर अब तक मेरे व्यवहार का यही तत्व तुमने निकला, तो तुम्हें इससे बहुत पहले मुझे विष दे देना चाहिए था , पर इतना घोर अन्याय मत करो | ईश्वर वह दिन न लाये , कि मैं तुम्हारे पतन का साधन बनूँ | जलने के लिए, मुझे खुद की चिता बनाना स्वीकार नहीं, पर हाँ, तुम थोड़ी बुद्धि से काम लेकर घर को इस तरह की तबाही से बचा सकती हो !
संध्या, पति की बात का जवाब न देकर , सिर्फ इतना बोल कर चुप हो गई, कि तुम्हारी सलाह है, घर के झूठ-सच में नाक न गलाऊँ, और सन्यासिनी बन जाऊँ | तुमको अगर त्यागवृत ही लेना था, तो शादी क्यों किये ? सर मुड़ाकर किसी साधू-संत के चेले बन जाते, तो मैं तुमसे कुछ कहने आज यहाँ नहीं होती |
सर्वेश के पास अब कोई शस्त्र नहीं था | उसने रुंधे कंठ से कहा----- मेरे लिए रत्ती भर भी चिंता नहीं करो, जिस दिन यह पुनीत कार्य करूँगा, मोह-मुक्त होकर स्वाधीन हो जाऊँगा |
संध्या हथौड़े से काम चलते न देखकर कही ------- कहो तो लिख दूँ , तुमसे यह काम नहीं होगा | अपने भाग्य को सराहो, कि अब तक मैं तुम्हारे घर से निकली नहीं हूँ ; जिस रोज छोड़कर चली जाऊँगी, समझ आ जायेगी, अपनी कीमत | पूछो जाकर गुप्ताजी से, बीबी बगैर वे कैसे जीते हैं ? जब तलक बीबी रही, पाँव समतल जमीं पर था, फिसलने का डर नहीं था ,और अब लुढ़कने लगे |
सर्वेश परास्त हो, कुछ देर चुप रहे, फिर बोले ------ यह तर्क तो तुम्हारा अच्छा है, पर मरीज को छोड़ दो , वह अपने आप अच्छा हो जायेगा | इस तरह के उपचार से मरीज मर जाएगा, फिर किसका उपचार करोगी ?
संध्या खीझकर बोली ------- उसके बाद अपने दिमाग का !
सर्वेश ------ बाद क्यों, अभी क्यों नहीं ? मेरा कहा मानो ------- अब तक जो हो चुका, उसे भूल जाओ | अब आज से शांति के साथ रहने की कोशिश करो, तब देखना , अपना टूटा-फूटा घर, अपने मैले-कुचैले कपड़े, अपना नंगा बूचापन, कर्ज-दान की चिंता, अपनी दरिद्रता , अपना दुर्भाग्य , ये सभी पैने काँटे, फूल बन जायेंगे |
संध्या, सर्वेश के दिए, ऐसे सरल-स्नेह के प्रसाद को अस्वीकार नहीं कर सकी , और विषाद भरे स्वर में कही------ सर्वेश ! तुम्हारे बचपन की तरह मेरा बचपन बीता होता , तब मेरे ख्याल ऐसे नहीं होते | मैं वह दरख़्त हूँ, जिसे कभी पानी
नहीं मिला | जिंदगी का वह उम्र ,जब इन्सान को ज्यादा से ज्यादा प्यार की जरूरत होती है , वह है बचपन ; तब मेरी सौतेली माँ ने मुझे सदा ही इससे वंचित रखा | मुझे कभी शांति के साथ जीने का मौक़ा नहीं दी | वहाँ सिर्फ और सिर्फ उपेक्षा थी | प्रेम का आश्रय न पाकर मैं उग्र और उद्दंड हो गई | तुम तो जानते हो, उपेक्षा के पास इतना कोमल ह्रदय नहीं होता , जो मेरे आँसुओं से पिघल जाती | मेरे मनोगत भावों को संतोषमय सन्मार्ग पर ले जाने वाला कोई नहीं था | वहाँ अपने विचारों का सम्मान करना काँटों पर चलना था |
यह कहते हुये संध्या की आहत, निर्जीव आत्मा,संतावना हेतु विकल हो उस रोगी की तरह, जो जीवन-सूत्र के क्षीण हो जाने पर, वैद्य के मुख की ओर आशा भरी नजरों से ताक रही हो | वही सर्वेश, जिस पर आज तलक संध्या ने सदैव जुल्म किया, जिसका हमेशा अपमान किया, आज उसी अभागे के आगे अपनी प्राणहीन धमनियों में फिर से एक नई आशा का रक्त-संचार करने कह रही थी , और सर्वेश सर झुकाये बैठा, इसे देवी प्रेरणा समझने की कोशिश कर रहे थे |
Powered by Froala Editor
LEAVE A REPLY