इतना तीखा हलाहल कभी नहीं पीया था
सुदूर से शब्दहीन, स्तब्ध, मौन हवाओं पर
कोई पुकारता है मुझको, मेरा नाम लेकर
कहता है,पत्थरों के नीचे जब मेरी हड़ियाँ
छितरा जाये,तब मेरी कब्र पर वही गुलाब
चढा देना,जो हमारे यौवन की स्मृति रहा
जिससे कि लोगों के होठों पर, लोगों के दिलों में
इनसान की जिंदगी में, प्रवाहमान धारा में
हम और तुम,दोनों अमर रहें,तुम गुलाबों में रहना
मैं झाड़ - झंकाड़ में रहूँगा, और हमारा प्यार
इन भटकी हवाओं में, चंचल छायाओं मेंरहेगा
हम दोनों ने मिलकर जो एक अंतहीन कहानी लिखी है
जिसमें हम दोनों के ऊसर - बंजर जमीन की
भी कथा शामिल है, प्रतिध्वनि, छायाओं औरकोहरों के
छलना महल की तरह् हमारी प्रेम कथा भी
रहस्य्मयी है , मेरा पुराना – जर्जर प्रतीक्षारत मन
जिस पर तुम आज भी दस्तक दे रही हो, प्यार की
पहली रात की सांकेतिक आवाजें लगा रही हो
उस आवाज का आवेग मुझमें आज भी है
ऐसे मेरी आत्मा अब खामोश हो गई है, बंदकर
लिया है अपना कक्ष,जला लिया है शाम का दीया
अब अंदर से कोई आवाज नहीं आती, मगर
मेरी रूह अब भी तुम्हारे लिए , दर -दर की ठोकरें
खा रही है , तुम्हारी निगाहों के आगे सफेद,स्वच्छ
हिम - सी पँखुड़ियाँ बनकर खिला रहना चाहती है
तुम्हारे घने -काले घुँघराले बालों को पूर्ववत
अपने कंधे पर बिखरे रहना देखना चाहती है
आज भी मेरे होठों पर उसकी स्वाद है धरी
जब आशा के मरुस्थल के तपन में सजल हो
गई थी तुम्हारी दोनों आँखें , और भावुकतावश
तुम मेरे कंधे पर सर रखकर रो पड़ी थी
तुम्हारी आँखों से अश्रु छलक कर मेरे होठों
पर चू पड़ा था,सच मानो इतना तीखा हलाहल
इसके पहले मैंने जिंदगी में कभी नहीं पीया था
शून्य आकार में बनाकर अनगिणत आकार तुम्हारा
ढूँढता हूँ उन आकारों में उस अधर को
जिसे चूमने , जिसके चरणों पर , मनुज अपना
समस्त मणि - रत्न कोष लाकर धर देता है
यौवन अगरु की ताप तप्त मधुमयी गंध को
पीने धधक – धधक कर जलता रहता है
निर्जीव स्वर्ग को छोड़कर भूमि की ज्वाला में
जीने का मन करता है , लगता धरा की कांति
आभा को देखकर विस्मित खड़ा है अम्बर
उसे समझ में नहीं आता, नीचे जो दीप्तिमान
मनोमय जीवन झलक रहा है , वह हमारी बुद्धि
से पड़े है,या सचमुच धरा स्वर्ग से है अधिक सुंदर
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