Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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जब जागना था मुझे तब मैं सो गई

 



जब जागना था मुझे तब मैं सो गई


जब जागना था मुझे, तब मैं सो गई

सभी चले गए उस पार , मैं इस पार रह गई

आई इतनी जोर बरखा संग आँधी

सब कुछ बहा ले गई अपने संग 

पीछे छोड़ गई कीचड़ और तबाही


जीवन में यही एक जानने की उत्कंठा थी, मेरी

जिस गाँव से मैं गुजरी, वहाँ भीड़ इकट्ठा क्यों हुई

जिसका मैं अतिथि थी, वह मेरा भक्त क्यों बना

रात -दिन जिसका मैं अनुयायी थी, जिससे

बंधी रहीं मेरे जीवन की सारी गति विधियाँ

वह क्यों टतस्थ हो गया, क्या बात हुई


कलियाँ जिन्हें खिलना था अभी -अभी, माली ने

भौहें ऐसी तानी, अवगुंठन में ही सूख गई

निशा के अंगों में अगर छिद्र नहीं होता

ओस कण में है रजनी का रोदन छुपा

कोई कैसे कह पाता, दुनिया कैसे जान पाती

दिवा की उज्ज्वल ज्योति रात के रंग रंग गई

जाना था उस पार मुझे , मैं इस पार खड़ी रह गई


कौन सी ऐसी भाषा है, जो कलम से कागज पर उतर

न सकी, पीड़ा की भाषा बनआँखों से निकल रही

जीवन के इस खेल में विरह दुख कहाँ से आया

गई थी गंगा स्नान , जाह्नवी को देख मैं डर गई

सभी चले गए उस पार , मैं इस पार रह गई

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