जब तृष्णा भरती होगी गर्जन
मेरे जीवन की चिर जागृति
तुझसे बस इतनी सी है विनती
मेरी जीवन-संध्या के तिमिर वन में
जहाँ सौ - सौ , दुख- शोक- पीड़ाएँ
अपने पाँव में आवर्त बाँधकर
मेरे अस्थि - तंतु पर नाच रहीं
सभी कहते,ये साँसों के साथ थमेंगी
इसके पहले नहीं थमनेवाली
ऐसे में अब तू यह न पूछ बैठना
व्याकुलता से उलझे अपने जीवन को
अब तक कैसे संभाला तुमने ,कैसे
आँसू से भरे बरुनी को , अपने
अधर प्याले से बाँधे रखा तुमने
जब प्रेम विद्युत के नर्तन में
तूष्णा भरती होगी गर्जन , तब
फ़ूट-फ़ूट कर रोता होगा तुम्हारा मन
अनल से दकहते अपने मन को
कैसे समझाकर शांत किया तुमने
जो सुख तेरे नयनाकाश के मोदभवन में
छाने से पहले ही,घनसार कण बन उड़ गया
जिससे मिलने तुम आनंद जाल में, तड़प-
तड़पकर , जीवन की संध्या कर आई
फ़ूल - फ़ूल में झाँक थकी आँखें जब तुमने
खोलीं,तब बताओ क्या उस सुख को देख पाई
इसलिए अपने चित्रित ,भ्रमजाल को समेटो
दिग्भ्रांत रात की मूर्च्छा होती बड़ी गहरी
धूप- दीप - नैवेद्य , रोली - चंदन, अक्षत
मिलन का साधन और सुधि का दंशन
सब कुछ होता , इनमें सम्मिलित
जितना आनंद , इस गंध – मादन के
विजन – विपिन में होता , वैसा इस
त्रिभुवन में , मिलता कहीं नहीं
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