जाग गई अपलक नयनों की भूखमरी प्यास
जब से तुम्हारी स्मृति की रूप-विभा, लिपटी मेरे अंग संग
तब से जाग गई मेरी, अपलक नयनों की प्यास
निकलती नहीं अब, मेरी हृदय वीणा से पहले सी आवाज
लगता, तुम्हारे उन्मादों की पुतली से बंधकर उलझ गए
मेरे हृदय तंत्री के, मोटे-पतले आपस में दोनों तार
मेरे उपेक्षामय यौवन के भीतर , बहने लगा मधुमय स्रोत
दृढ मांसपेशियों में उठने लगीं , उमंगें, स्फूर्ति अपार
जहाँ नीरवता की गहराई में, मैं अकेले ही रहती थी मग्न
अब रहनेलगी तुम्हारी स्मृति के , सुख सपनों के संग
किरणो की रज्जु समान, हर वक्त मिलता तुम्हारा अवलंब
अब मेरे पदतल में शक्ति सोती, होकर विश्रांत, विनम्र
अब नीरवता के पर्दे में मुझे, जिंदगी डराने नहीं आती
प्राणों के उलझे धागे को खुदसुलझाती, नहीं विभ्रम
चिर नग्न जीवन है मेरा , तुम बुन दो मेरे लिए
अपने प्रीति रंग में रँगकर , एक सुंदर परिधान
जिससे किरणों -सा उज्ज्वल हो जाए मेरा जीवन
जिसमें तुम रहो सदृश मधुप समान
दिवस मधुर अलाप-सा सुनाता रहे हमारी प्रेम-कथा
जिसे सुनकर मैं तारे बन मुसकुराती रहूँ, हृदय
प्रणय से पूर्ण रहे, बढाता रहे हमारे प्यर की मान
ज्यों मिलते सुरभिसमीर , कुसुम- अलि, लहर -किरण
जिसके लिए, कुंज -कुंज में जगी, कोकिला करती क्रंदन
जिसको , छूते ही देह गरल , अमृत बन जाता, जिसके
लिए श्वास वायु में लहरी - सी लालसा करती नर्त्तन
भर दो मेरे हृदय मन में, तुम अपने तन का वह दिव्य घ्राण
मेरा भी सौन्दर्य खिल जाए , लतिका में कुसुम समान
कहते हैं, प्रेम जो न होता जग में , तो प्रकृति की
सुंदरता की सब प्रणाली फीकी लगती
माया के बल से धरतीचाहे जितना ही, रवि
किरणोंके सतरंगे आभरण को खींच लाती
यह धरती मृण्मय श्रीशोभा – सी नहीं दीखती
न ही दो बूँदों में जीवन का रस बहता, न ही
स्वर्ग बनकर अनंता मुसकुराता, न ही , दिशि-
दिशि में, फैली रहती ममत्वमय,आत्ममोह, स्वातंत्रमयी
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