जग हँसा, भाग्य ने दिया ताली– डॉ. श्रीमती तारा सिंह
चुन- चुनकर अपने जीवन- मरु से
सारी सजग व्यथाओं को, मैं जब
अपने आँचल में भर ,घर ले आई
जग हँसा , भाग्य ने दिया ताली
कहा, अरि ओ साँझ किरण की लाली
मृत्यु वरण करने के इस निर्भीक भाव को
शूरत्व नहीं कहा जा सकता, यह तो है
आत्मघात, एक क्रीड़ा है पागलपन का
यह तुम्हारे जीवन के भग्न रिक्त को
पूर्ण कर पल्लवित नहीं कर सकेगा
क्यों इसे अपने प्राणों के रज-तम से
चिपटाये रखने , अपने घर ले आई
क्या तुम नहीं जानती दाह्य, मनुज धर्म है
या तुममें मनुज धर्म पर टिकने की सामर्थ्य नहीं
जो तुमने अपनी बुद्धि में नभ की सुरभि लिये
हृदय रुधिर के कीच से खेलना चाह रही होली
माना कि प्रेम प्रज्वलित उर की
आग बड़ी तीव्र है होती
इसकी ज्वाला हृदय जलनिधि में
लहरियों की माला बन जलती
जिसमें बुद्धि-विवेक सब भस्म हो जाता
बची रह जाती केवल मनुज हृदय की
कामना की छायाएँ काली
इसलिए मेरा कहा मानो तुम
और तप्त बालुओं में गिरकर
अपने सुख को ढूँढ़ना छोड़ो
अभी जिस पथ पर तुम खड़ी होकर
मचा रही हो रवरोर
वह नंदन वन की ओर नहीं जाता
वह तो जाता मरघट की ओर
जहाँ नव – नव ज्वाला में
संसार जला जा रहा है
तुम क्यों लगा रही हो
मृत्यु संग अपने जीवन की होड़
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