Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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जग -जीवन के विष -घट को नित पीनेवाली

 

जग -जीवन के विष -घट को नित पीनेवाली





जग -जीवन के विष घट  को नित पीनेवाली

रस-अमृत को जग में वितरण करने वाली,गंगे!

उमड़ रही प्लावित कर तुम्हारे अधरों से

यह  कैसी वेदना अथाह जो तुम जग -

जीवन की चिंता त्याग बैठी रहती हो

एकांत चित्त लेकर सिकुड़ी-सिमटी शांतउदास 


भरा हृदय का शून्य सरोवर,दावानल सा जल रहा तुम्हारा

लहरों की स्वर्ण रेख काली पड़ गई तुम्हारी

तटिनी सोई रहती  ,   पीले पत्तों की शय्या पर 

तुम्हारे रूप  की ज्योत्सना  ,छाया -सी रहती सकुची

ऐसे में मानव उर अंधकार को कौन करेगा दीपित 

कंदर्प लिपटे तंद्रिल रोओं मेंप्राणों का पावक भरकर 

मानव  मन को भू -सा कौन करेगा विस्तृत


कभी धूप -धूप ,वन -कुसुमों से कुसुमित था तट तुम्हारा

सिकता की सस्मित सीपी परज्योत्सना रहती थी बिखरी

लहरें तुम्हारी अनंत से,किल्लोल भरी बातें किया करती थीं

मलय  स्पर्श के झिलमिल संज्ञा कोबाँहों में सुलाती थी

झीगुर  कुल  सुर संगीतों से तुम्हारी शिरा -शिरा में कर्म 

क्षुधित अवयव भरा करता था ,जब जब दुनिया सारी सोती थी













धर अतीत गौरवमय ध्यान याद करो देवी

कितने नृप धोये तुममें अपनेतलवार 

कितने रुधिराक्त मुकुट पहनकरतुमसे मिलने आये 

अंजलि मेंभरकर जय –   कुसुमों का हार 

कितने वीर तुम्हारी अमृत धारा में कर अभृथ स्नान 

अपने श्रद्धा सुमनों को तुम्हारे चरणों में अर्पित कर 

ले गये तुमसे माँगकर 'विजयी भवोका वरदान



इसलिए देवी सुनअंतर्नाद दिशाहीन मानव का

छोड़ दे  अपनी  जिद फिर  से स्वर्ग  जाने का

खिलने दो हरसिंगार की टहनी में अरमानों का फूल 

धू -धू कर जल रहा जीर्ण जगत का जन -अंतर 

खिलने  दो  डाली -डाली पर शाश्वत शोभा के फूल  



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