जिंदगी
जगती के नेपथ्य भूमि से , छाया सी
उतरकर. जिस दिन तुम जीवन से मिली
जिंदगी, उसी दिन से , उसकी साँसें
काल परिधि में घूम-घूमकर गुम होने लगीं
आँखों के आगे का , आलोक
शांति को लेकर दूर भाग जाने लगा
दिग्भ्रांत रात की मूर्च्छा , गहराने लगी
निस्सीमता की क्षितिज ओट में बैठा
काल, व्यथा भेंट लेकर उतरने लगा
दृष्टि , कुहासे को , अम्बर से मृत्यु सदृश
गिरता देख ,नैराश्य से आलिंगन करने लगी
उषा वि्भाषित,उदय शैल की स्वर्ण शिला सी
देह , सूखे पत्ते के दोने सा हो गई
सोचा था जीवन , पाप -पुण्य की जननी, जिंदगी
की गोद में खेलकर सदियों तक जिंदा रहूँगा
भुवन में छूट रहा जो झरने से, प्रणय रस की धार
उसे अपने चुल्लू में भर – भर के पीऊँगा
नंदन वन के फ़ूलों की शाश्वत स्मिति को अपने
मृण्मय अधरों में भरकर अंत: तक को सुरभित करूँगा
मगर अपनी भावनाओं को जब
धुएँ के जाल सा ऊपर उड़ते देखा
तब पाँव के नीचे की जमीं सरक गई
लगा, आँख के ऊपर है कोई ऐनक
पड़ी हुई, जो दिखला रही,बता रही
तुम्हारी कामना , गगन में फ़ैले
धुएँ संग कैसे , देखो उड़ रही
दृष्टि से ओझल रक्त शिरा में,शोणित संग
रहने वाली यह जिंदगी, मनुज की साँसें
रूकती नहीं, अपना भार डालने लगतीं
इसकी उँगली पकड़कर, जब भी जीवन
अम्बर को छूना चाहा , अम्बर भागता
गया , धरा नीचे और नीचे धँसती गई
इसकी आकांक्षा की तीव्र पिपासा
दिन-रात जीवन जल को घेरे रहती
निदाघ मरु में भी अपना अपरिमित
पात्र लिये बूँद-बूँद को जागती रहती
फ़िर भी कहती जिंदगी, व्यर्थ ही
स्वर्ग सम्राट से बैर लेकर मैं
जीवन के संग रहने धरा पर उतरी
यहाँ से तो मैं वही थी भली
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