जिसके लिए लगाती हूँ अश्रु की हाट
जिसकी स्मृति की छाया से गर्वित हो
गले मिल, करती हूँ मैं मर्म प्रीति की बात
जो है मेरी साँसों का उदगम , जिसके
लिए शून्य पड़ा है, मेरा हृदय आकाश
जिसकी चाह, वेदना बन, मेरी धमनियों में
करती संचार,कहाँ है वह सरल छबि की छटावाली
मेरी जीवन नौका का खेवनहार
जिसके विरह ज्वाल में , घुल- घुलकर
मिटता जा रहा मेरा जीवन साम्राज्य
जो जीवन सिंधु है मेरा, जिसके लिए
मेरी आँखें लगातीं नित आँसुओं की हाट
जिसके अभिनंदन पथ पर अपनी
व्याकुलता का पुष्प बिछाकर
विजयिनी सी खड़ी, करती हूँ इंतजार
जिसके लिए अपने जीवन के दुर्गम पथ को
निज अश्रु जल से सीच,रखती हूँ सजल,शीतल
जिसकी एकांत इच्छाओं के कम्पन से , मैं
सपने में भी उठ बैठती हूँ, नींद से जाग
जो निशीथ की नीरवता में आता मुझसे मिलने
जिसका मेरे निमिषों से भी नीरव है पदचाप
जिसके लिए मैं घायल मन सोती हूँ
ज्यों घटाएँ बीच रहती सितारों की प्यास
आज दुनिया पूछती उसका नाम-पता,करना चाहती
उससे आलाप, अब तुम ही बताओ,क्या बताऊँ
वह अंतर के कूलहीन तम से दमक
आँखों से अश्रु बन झड़ता है
शूलों के पथ पर भी पकड़कर चलता है मेरा हाथ
वह छाया बन मुझमें लय है
मैं हर पल रहती हूँ, काया बन उसके साथ
( सहेली रेखा की तरफ़ से पति की मृत्यु के बाद )
Powered by Froala Editor
LEAVE A REPLY