Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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जीवन सफर का यह कौन सा मोड़ आया

 

जीवन सफर का यह कौन सा मोड़ आया



प्रभु! मेरे जीवन सफर का यह कौन सा मोड़ आया

विषैला व्याल बन मेरे पाँवों को  डँसता दूर्वा

फूलों की डालियाँ ज्वालामुखी बनझूलतीं

घूर्णियाँ चिनगारी की खंडपत्ती-सी हवा में नाचतीं

पाँवों के नीचे की धरती धँसती जा रही

ऊपर घनघोर रव से व्योम फटा जा रहा

देखकर सिंधु -सा फैला भग्न  आशा का अम्बार 

प्राण संचित अग्नि,अधर से बाहर आने उधम मचा रहा 

प्रभु !मेरे जीवन का यह कौन सा मोड़ आया


नभ धरा के बीच, दुखता  है अब जीवन मेरा

भ्रमित शून्य  में उल्का - सा घूमता  हूँ मैं अकेला

प्राणों के उलझन को सुलझा मानकर ,जीता हूँ मैं हारा

विधाता  की कल्याणी सृष्टि,   मैं भी यही चाहता 

तुम पूर्णरूपेण सफलहो,   इस भूतल पर  

तुम्हारी कृति अनिल, भू जल  में बंद रहेसदा

मगर क्षितिज में सृष्टि बनी  स्मृति की संचित छाया से

मानव मन को विश्राम कहाँ मिलता,यहाँ तुम्हारे अंतर के 

गुह्य में छिपे रहस्य को कौन बता सकता


मेरी अपलक आँखेंपदाग्र विलोकन करतीं

पथ  प्रदर्शिका बनचलतीं धीरे - धीरे

पाँवों के छाले ढुल - ढुलकर फट-फटकर बहे जा रहे

खुले  नयन  चमकते मेरे ज्यों शिला हों दो अनगढे

इतना निष्ठुर न बन प्रभुदेखो रत्नाकर हृदय उलीच रहा

जो कराह रहा है खाट पकड़कर,वह तुम्हीं को पुकाररहा




मेरा हिमगिरि हृदय गल – गलकर  सरिता की

शीतल  धारा  बन  जिसके लिए बहता आया

जिसकी आवाज  गुंजती  थी दिव्य रागिनी -सी

जो  मेरी नजरों को शांत मंगल -सा दीखता रहा

वह अनंत के अमूर्त प्रांत से  नहीं है आया

वह तो मेरे जीवन जलधि से मुक्ता बन है निकला

जिसके  लिए मंगल गान कर मैं नहीं था थकता

आज वही शोक की छाया बनमेरे संग है रहता


राह  भी वही पुरानापथिक भी मैं  वही पुराना

फिर भी पथ नहीं सूझता,यह तुम्हारा कैसा करिश्मा

यह कैसा तुम्हारा रूप नया,जिसमें न माया, करुणा

गली – गली  में सुख सेज बिछी हैउगी धूप भी है

कानन  कानन  में  फूटे  रंग  गुलाबी ,बसंती भी है

मगर मेरा लहराता  कानन कैसे सूख गया

दाग -दागकुल अंग भर गयास्याह कैसे हो गया


मैं मानता हूँविश्व  बंधा  है प्रकृति  के नियमों से

परिवर्तन प्रक्रिया प्रकृति की सहज प्राण -धारा है

परिवर्तन ही विनाश है,किन्तु परिवर्तन नाश नहीं है

नाश में सृजनता रहती छिपी हुईक्षण-क्षण परिवर्तित 

दुनिया का कोई आकार नहीं होता ,इसी परिवर्तन के 

क्रम में मेरे हृदय वेदना कीमूर्तियाँ भी बनतीं 

नित नईजिसमें  नूतनता नाचती होकर नंगी 


सोचता  हूँ पंचतंत्र  की रचना में भ्रमण करने

तुमने एक  और तत्व अभिलाषा को क्यों भरा

वारिद में तड़ित को भरादारू में  अनलको

फूलों में  सुरभि को भरासुरभि में विकल को

यह  वृथा  प्रणय  की अमर साध तुमने क्यों दिया

मानव चेतना के पट सेअपनी स्मृति की शाश्वत छाप 

हटाकर हृदय दाह करने,प्राणों में व्याकुलता क्यों रा 

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