जो बिना स्पर्श ही पुलकित करता था मुझको
जिस घने तरु की शीतल छाया को मैं, अपने
जीवन कली की पंखुड़ियों में बंद कर रखी थी
जो मेघ तुल्य समान चलता था, मेरे हृदय आकाश पर
आज दीखता नहीं वह, जीवन के इस कठिन डगर पर
अब शीर्ण झुर्रियाँ भरी उँगलियों से अपने मस्तक को
सहलाकर , कहाँ विश्राम करूँगी मैं निर्भीक होकर
गूँजती है आज भी उसकी उज्ज्वल हँसी, मेरे कानों में
किरणें बनकर झिलमिलाती हैं, मेरे हृदय की लहू धारा में
जो बिना स्पर्श ही पुलकित कर पिला देता था, अपनेमुग्ध-
नयनों से सुधा तरंग , मेरे सारे अंगों को , जिसे देखकर
लगता था,सूर्य समा गया हो एक क्षण के लिए पुतली में
कहाँ है वह मेरा प्यारा श्रांत , जो मेरे अन्तःसर को
मज्जित कर , सज्जित करता था रंग - विरंगे फूलों में
सोते -जागते हरि का नाम न लेकर लेती थी उसका नाम
सोचती थी, मेरे जीवन भविष्य का यही तो है श्याम
लेकिन आज जब मेरे गालों पर , गंगा -यमुना केस्रोत
निकल आये हैं, आग भरी लय तरल अंगों को खींच रहे हैं
झीने बंधों को तोड़कर,आत्मा बाहर निकलने विकल हो रही है
तब कहाँ गया वह निर्भय आकाश , जिसके स्नेह की
निर्मल ज्योति में, मैं करना चाहती थी आराम
कहते हैं, परिवर्तन प्रक्रिया प्रकृति की सहज प्राण धारा है
तो क्या इस प्रक्रिया में रिश्ते -नाते भी आते हैं
अगर ऐसा है, तो यह विनाश है, मुक्ति नहीं है
मुक्त तो वो हैं जो अपनी कामनाओं को त्यागकर
सहज भाव से भावना की निर्मल धारा संग बहते हैं
धर्म साधना कभी भी प्रकृति से भिन्न नहीं चलती
परिवर्तन की तुच्छ प्रक्रिया से यह कभी पूरी नहीं होती
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