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Dr. Srimati Tara Singh
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ज्योति

 

ज्योति

                    दाड़िम के लाल फ़ूलों से भरे उद्यान के बीचोबीच बने चंद्रचूड़ के घर में किसी चीज की कमी नहीं थी; बावजूद उसका जीवन नीरव निकुंजों में बीत रहा था| वह चुपचाप रहता, घर के छत पर बैठे नदी के उस पार की हरियाली को निहारते, कब अंधकार का परदा खिंच जाता, उसे पता तक नहीं चलता| रोज की यही उसकी दिनचर्या थी| तारों से सुशोभित, गगन के नीचे अवाक निस्पंद, कौतुहल आँखों से केवल ऊपर की ओर निहारता रहता| एक दिन वह छत पर बैठा, अन्यमनस्क होकर गाँव के छोर से बहती, गंगा की उमड़ती धारा को देख रहा था, कि अचानक नीचे आँगन से पिता शैल सिंह की आवाज आई, ‘बेटा चंद्रचूड़! कहाँ हो?’ 

पिता की आवाज सुनकर, चंद्रचूड़ भय से आंदोलित हो उठा; धीरे-धीरे छत की सीढ़ियों से उतरकर पिता के सामने आ खड़ा हो गया, पूछा, ‘पिताजी आप मुझसे कुछ कह रहे थे?’

शैल सिंह, प्रसन्नता के साथ बोले, ‘बेटा! तुम्हारी शादी के लिये, कुछ लड़कियों की फ़ोटो लाया हूँ, जो तुमको दिखाना चाहता हूँ|’

चंद्रचूड़ शर्माते हुए कहा, ‘अभी इसकी जरूरत क्या है, पिताजी?’

पिता शैल सिंह, मुस्कुराते हुए बोले, ‘बेटा! जवानी, कसाई के नजरों से नहीं छिपती, सो इन सब बातों को छोड़ो और इनमें से किसी एक को चुन लो|’

चंद्रचूड़, सौन्दर्य का चुनाव करते वख्त मन ही मन कितना उत्कंठित है, पिता को समझने में देर नहीं लगी| उन्होंने देखा, चंद्रचूड़ ज्योति नाम की लड़की की तस्वीर देखने में इतना लीन हो गया, कि वह उत्साह की एकांत नीरवता में विलीन हो गया| पिता शैल सिंह, उसकी नीरवता को भंग करते हुए पूछा, ‘सचमुच क्या यह लड़की सुंदर है?’

चंद्रचूड़ ने शर्म से आँखें झुका लीं, बोला, ‘पता नहीं|’

शैल सिंह ने कहा, ‘मुझे भी यह लड़की सबसे अधिक सुंदर लगी यद्यपि अँगारे की तरह गोरी नहीं है, मगर गठन साँचे में ढ़ला हुआ है|’

चंद्रचूड़ तंद्रा से चौंककर उस सहज सौन्दर्य को पुन: एक बार देखा और विषम समस्या में पड़कर सोचने लगा, सुंदर ही नहीं, आकर्षक भी है|

पिता शैल सिंह, चंद्रचूड़ से मजाक भाव में कहे, ‘चलो फ़ूल को जो अब तक बुलबुल की खोज थी, वह तो मिल गई; लेकिन मिलन दिन तो पक्का हो|’ शैल सिंह विचारता हुआ, चंद्रचूड़ के माँ के पास गये, और ज्योति की तस्वीर दिखाते हुए बोले, ‘भाग्यवान, ये देखो! ये रही तुम्हारी होने वाली बहू, आज से इसे सँभालकर रखना, मैं लड़की के घर, उसके माँ-बाप से बात पक्की करने जा रहा हूँ|’                             

          बैशाख के शुक्लपक्ष पंचमी को चंद्रचूड़ की शादी ज्योति के साथ बड़े धूमधाम से सम्पन्न हो गई| बहू घर आई, घर के सभी सदस्य ज्योति को पाकर बहुत खुश थे, ज्योति भी खुश थी, रहना भी चाहिये| आभूषण मंडित चंद्रचूड़ के घर में आखिर कमी किस चीज की थी?

             चंद्रचूड़, नाटा और काला तो था, मगर उसकी छोटी-छोटी मूँछें, उसके सुडौल चेहरे पर बहुत अच्छी जंचती थीं| मातृसेवा, पितृभक्ति उसकी अभिलाषाओं का स्वर्ग था, स्वर्ग के निवासियों को भी शायद वह आनंद नहीं मिलता होगा, जो उसे अपने माता-पिता की भक्ति में मिलती थी| वह दिन-रात, सोते-जागते, ज्यादा से ज्यादा अपने माता-पिता के साथ बातचीत में लगा देता है, और बाकी बचे समय, छत पर बैठकर| इधर ज्योति चंद्रचूड़ के इंतजार में, उसकी राह देखते-देखते थककर सो जाती थी और कभी जब छत पर जाकर देखती तो चंद्रचूड़ झूले पर सो रहा होता था| वह गुस्से से तिलमिला उठती, कहती, ‘अकेले ही रहना था, तो मुझे क्यों ब्याह लाये? मेरे तो करम फ़ूटे थे, जो तुम्हारे घर आई, वरना यहाँ तो पशु भी नहीं रहना चाहेगा| क्या मैं कुरूप हूँ, काली-कलूटी हूँ, बातचीत में भोंदू हूँ? मुझमें क्या कमी है, जो तुम मुझसे किनारा किये रहते हो? न कहीं जाना, न आना; इतना कठोर संयम बरतना मेरे लिए संभव नहीं है|’ ज्योति का विवेक, इस आघात का जब भी विरोध करने लगता, विजय प्यार की होती और वह चुप हो जाती|

           एक दिन चंद्रचूड़ शहर जाने के लिए तैयार हो रहा था; नये फ़ुलपेंट, नये जूते पहने, कलाई पर बड़ी घड़ी लगाई, और जब दर्पण के सामने अपनी सूरत देखी, तब उसका गर्व और उल्लास से मुखमंडल प्रज्वलित हो उठा| सोचने लगा; ‘सौन्दर्य का मेरे रूप में कोई लक्षण न होने के बावजूद, मेरी चिपटी नाक और गोल चेहरा, आज किसी देवकथा के मुख्य पात्र से कम नहीं लग रहा|’ तभी ज्योति कमरे में प्रवेश की, उसने चंद्रचूड़ को दर्पण के आगे खड़ा देखकर, कहा, ‘जिंदादिल वृद्धों के साथ तो मुहब्बत का आनंद उठाया जा सकता है, लेकिन ऐसा रूखा, निर्जीव मनुष्य जवान भी हो, तो दूसरों को लाश बना देता है; ऐसी जवानी व्यर्थ है|’

चंद्रचूड़ मुँह बनाते हुए कहा, ‘तुम्हारे साथ अयोग्यशास्त्र पर चर्चा करने का मेरा मुड नहीं है, मैं जरूरी काम से शहर जा रहा हूँ| मुझे आने में दो से तीन दिन की देरी होगी, मेरी चिंता मत करना; माँ की देखभाल करना और खुद का भी ख्याल रखना|’

ज्योति मन ही मन झुँझला उठी; उसने खुद को धिक्कारते हुए  कहा, ‘तुम जैसे प्रीति-व्यक्ति सज्जन का यही हर्ष होना था, तुम सम्मान के पात्र नहीं हो| इस स्वार्थमय संसार में कोई अपना नहीं होता; फ़िर पति जो कि तुम्हारी तरफ़ देखता तक नहीं, तुम्हारा सम्मान क्यों करे?’

थोड़ी देर बाद नीतिकुशल ज्योति के हृदय की ज्वाला तो शांत हो गई, लेकिन मन की ज्वाला ज्यों की त्यों दहकती रही| पति तो घर पर थे नहीं, सो इस हालात के लिए ईश्वर को कोसने लगी, कही, तुमसे अधिक निर्दयी इस धरती पर मुझे और कोई नहीं दीखता, तुम जितना दयालु हो, उससे कई गुना निर्दयी हो| ऐसे ईश्वर की कल्पना से मुझे दुख होता है| विचारवानों ने प्रेम को सबसे बड़ी शक्ति मानी है और यही सच भी है| तुम दंडभय से सृष्टि का संचालन करते हो, तुममें और आदमी में कोई फ़र्क नहीं है| तुम जो करते हो, वही तो मेरे पति भी करते हैं; मुझसे रिश्ते तोड़ देने की धमकी दे-देकर अपनी मनमानी मनवाते हैं| तुम क्या जानो, एक दंड बरसों के प्रेम को मिट्टी में मिला सकता है; ऐसे आतंकमय, दंडमय जीवन के लिए मैं तुम्हारा एहसान नहीं ले सकती, न ही मैं तुमको अपने जीवन संबंधी समझौते में साझा ही करना चाहती|

              तीन दिन बाद जब चंद्रचूड़ शहर से लौटा, देखा, घर से पाँच सौ कदम पश्चिम की ओर एक मंदिर के चबूतरे पर अपनी प्रेम-माधुरी में विह्वल, शर्मीली ज्योति बैठी कुछ सोच रही है| ज्योति साँवली थी, जैसे साबन की मेघमाला में छिपे हुए आलोकपिंडों का प्रकाश निखरने की अदम्य चेष्टा कर रहा हो, वैसे ही उसका सुगठित यौवन शरीर के भीतर उद्देलित हो रहा था| ज्योति की एकांत में विरह-निवेदन उसकी भाव प्रवणता को और भी उत्तेजित कर रहा था| सहसा उसकी निस्तब्धता को किसी के पदचाप ने भंग कर दिया, नजर उठाकर देखी तो सामने चंद्रचूड़ खड़ा था| वह घबड़ाई हुई पूछी, ‘आप! आप शहर से कब लौटे?’ 

चंद्रचूड़ को अपने अहंकार का आश्रय मिला, थोड़ा सा विवेक, जो, ज्योति के लिए उसके मन में टिमटिमा रहा था, बोला, ‘यह जगह बहू–बेटियों के बैठने के लिए नहीं है; चलो, घर चलो|’

पति की ओर से इतना सा प्यार पाकर ज्योति के हृदय में तीव्र अनुभूति जाग उठी; एक क्षण में वह एक भिखारिन की तरह जो एक मुट्ठी भीख के बदले समस्त संचित धन लुटा देना चाहती हो, वह धीरे-धीरे उठी, और चंद्रचूड़ के साथ उसके शिथिल कदम, घर की ओर बढ़ने लगे| रास्ते भर सोचती रही, ‘देखूँ आज आशा से भरी विरह-यात्रा किस विश्राम भवन को पहुँचती है?’

            दोनों गुमसुम घर के भीतर पहुँचे| चंद्रचूड़ ने अपना बैग खोला, बैग से एक पोटली निकाला और ज्योति की ओर बढ़ाते हुए बोला, ‘यह तुम्हारे लिये, खोलकर देखो; पसंद आये तो बताना|’ ज्योति धीरे से चंद्रचूड़ के हाथ से पोटली लेकर खाट पर बैठ गई| उसने पोटली खोली, तो उसके होश उड़ गये| 

इधर चंद्रचूड़ सोच रहा था, शहर जाते दिन की तरह आज भी मुझे दायित्वहीन कहकर कोसेगी, कहेगी, ‘मेरे और तुम्हारे बीच सदियों की दूरी का पर्दा क्यों पड़ा रहता है, तुम उसे क्यों नहीं हटा देते?’ ज्योति की बातें सुनकर रोषपूर्ण मगर बड़े ही सुलझे लहजों में दीनभाव से कहूँगा, ‘जो मैं नहीं कर सका, तुमने भी तो नहीं किया?’

ज्योति चुपचाप रही, उसने कोई जवाब नहीं दिया, वह डरी हुई थी| उसका भविष्य एक अँधेरी खाई की तरह सामने मुँह खोले खड़ा दीख रहा था; मानो उसे निगल जायगा| न जाने इसी चिंता में कब उसकी आँखें लग गईं, वह सो गई| दूसरे दिन सोकर उठी, तो उसके मन में एक विचित्र साहस का उदय हो गया था; मानो उसमें कोई शक्ति प्रवेश कर गई हो| यही हालत चंद्रचूड़ की भी थी, कल तक वह माता-पिता के निर्णय को मान्य समझता था, लेकिन उसमें आज वायु की हिम्मत पैदा हो गई थी| 

चंद्रचूड़ मन ही मन सोच रहा था, यह देह माता-पिता का है, लेकिन आत्मा तो मेरी है, और शादी, यह तो दो आत्माओं का मिलन होता है| मैं इन आत्माओं की इच्छाओं का कत्ल, कुल-मर्यादा की झिझक के नाम पर कब तक करता रहूँगा| रात ज्योति के एक-एक शब्द में कितना अनुराग टपक रहा था, उसमें कितना कम्पन था, कितनी विकलता थी, कितनी तीव्र आकांक्षाएँ थीं! इतने प्रमाणों के होते हुए, निराशा के लिए अब जगह कहाँ है, जो मैं अपनी दूसरी रात को भी विरह की सूली पर चढ़ा दूँ| अपने हृदय की हिम्मत की सारी सम्पत्ति लगाकर मैंने जिंदगी की एक नाव लदवाई, वह भी अपनी झूठी शान और गलत सोच की दरिया में डूब जायगी, नहीं ऐसा नहीं हो सकता| ठीक है, नाव टूटी है तो उसके साथ मैं भी डूब जाउँगा| चंद्रचूड़, जो पत्नी की अनदेखी कर अब तक संतोष का आनंद उठाते आ रहा था, अब चिंता की सजीव मूर्ति बना बैठा था| आत्माभिमान जो संतोष का प्रसाद था, उसके चित्त से विलुप्त हो चुका था| उसे प्रतीत हो रहा था, कि वेदना से भरी कोई आवाज जिसमें कोयल की सी मस्ती है, पपीहे की सी वेदना है, झरणों का सा जोर है, और आँधी सा बल; इसमें वह सब कुछ है जो मेरी ओर बढ़ती चली आ रही है| उसका अन्त:करण पवित्र हो गया, उसे लगा, कि अब एक क्षण भी देरी, मृत्यु की यंत्रणा है, वह दौड़ता हुआ ज्योति के कमरे में पहुँचा, देखा ‘समस्त सुमन-समूह का सौरभ सी ज्योति सो रही है| देखकर, चंद्रचूड़ के धैर्य का अंतिम बिंदू शुष्क हो गया, अब उसकी चाह में केवल और केवल दाह बाकी रह गया था, जिसे ज्योति ही ठंढ़ा कर सकती है| वह प्रज्वलित प्रदीप की तरह प्रकाश फ़ैलाता हुआ, प्राणपोषिणी पुकार के साथ ज्योति से लिपट गया| ज्योति आँखें खोलकर देखी और सिर्फ़ इतना कहकर चुप हो गई, ‘तुम्हारा प्रेम और वैराग्य दोनों सराहनीय है|’

 

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