ज्योति
तम कोख से,ज्योति ने जैसे ही जनम लिया
थार की रेती रंग गई, सब कुछ सोना हुआ
विश्व का कोना – कोना दीप्त हो उठा
जड़ को उड़ने का पंख मिला
खंदक – खाई से उदासी दूर भागी
मानव के अंतरतम का स्वप्न,अक्षय वैभव को
अतिक्रम कर, युग को यथार्थ किया
यौवन में ज्वार भरी, स्वर में हुंकार भरा
लहू में रवानी भरी, हिम्मत तलवार हुआ
पतनोन्मुख छिपी विभा अपने मस्तक पर
अभिमान भरकर,निज गौरव का उत्थान किया
मरघट में जीवन को फ़ूँककर जिंदगी के
शिरा-शिरा में तरल आग का लहू भरा
जग जीवन का मुख,कमल सा खिल उठा
हिमालय का अंग-अंग सतरंगा हीरा हुआ
ध्वनि तरंगिणी रस बरसाती, निर्झरिणी बनी
मन क्षितिज के पार का,हृदय-द्वार खुल गया
बुद्धि व्योम को भेदकर, अमृतत्व को पिया
नव स्वप्न, रुधिर से सिहर –सिहर कर
प्राणों के क्षितिज पर सागर सा लहराया
जीर्ण, विरस, विश्री , भू-यौवन के जघनों को
धान्य-धन्य, जन सुखी मनुज दाय बनाया
जिस रूप की झाँकी लिए कलियाँ बंद थीं
जिसके रूप का कर अनुमान शैल मूक था
नव अनुभूति के हिलकोर ने शैल
तृणों के मूल तक को लहरा दिया
लघु वृत्त में बंधे स्वप्न को, मानव हृदय की
शीतल छाया में व्योम का विस्तार मिला
सिकता,सलिल,समीर सभी एक पाश में बंध गये
विष्णुपदी, शिवमौलि श्रुता, देवनिम्नगा
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