Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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कैसे उजड़ गई वह दुनिया मेरी

 

 


कैसे उजड़ गई वह दुनिया मेरी, जिसे मैंने
तंग-दस्ती1 में, खूने जिगर से सजाया था

 

जबां जीवन-प्यास से, सूख रहती थी मगर
दिल मेरा जिस्त2 का मजा पाया था

 

वादे-सुबह3 घर के चौकठ पर शबनम की
मोती रख जाती थी,शोख ने दर खड़काया था

 

शाम होते-होते सिमट गई वो सारे रस्ते,जिसके
हिज्र में तनहाई ने मुझसे मुझे मिलवाया था

 

जिंदगी भर मैं उन बातों को समझ न सकी
जिन बातों को मैंने, औरों को समझाया था



1.गरीबी 2. जिंदगी 3. प्रात:कालीन हवा

 

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