कण
कण, युगों से अपना आहत मन लिये ,तू
जिस विश्व के कदमों में पड़ा हुआ है अनजान
यह विश्व तुझसे ही बना है ,फ़िर भी नहीं तेरी
कोई पहचान,क्या तुझको इस बात का है ग्यान
सूरज की किरणों में तू है
कोयल के कुंज भवन में तू है
जल - थल , गगन – पवन , तृण –
तरु बहु रूपों में छुपकर तू
करता निखिल विश्व का निर्माण
सृष्टि की सृजनता में तेरा
चतुर्दिक है बराबर का योगदान
फ़िर भी नहीं तुझको,जरा भी अभिमान
पंचभूत से तेरा क्या है रिश्ता
योगी , ग्यानी , ध्यानी , देवता
कोई कुछ नहीं बताता, क्यों तू
मृतिका के मलिन गोद में
पड़ा रहता ,निज को क्लिष्ट मान
ढूँढ़ता नहीं अपने जीवन का निदान
मिलती जब साथ परागों का तुझको
तू व्योम में घुसकर ,ज्वलित नक्षत्रों
का भी कर आता संधान
मगर फ़ँसता जब , आँधी की
उलझी तरंगों में , खूब कराहता
चिल्लाता , बचाओ - बचाओ जान
तू ने अपने जीवन काल में क्या
रुंड – मुंड,निहिंसन मीच ,लोहित
कीच ,क्या कुछ नहीं देखा
तेरे रोम - रोम से आज भी लिपटे
पड़े हैं कितने ही दिग्विजयी
नृपों के पांवों के निशान,क्योंकि
तेरे ही समक्ष विश्व के चक्रवर्तियों
ने किया था अवभृथ , स्नान
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