डा० श्रीमती तारा सिंह
करमजला को कितनी बार कहा,’ जिह्वा को समेटकर रख ,इतना लम्बा मत कर । तेरे तकदीर में घी,दूध,दही खाना जब नहीं लिखा है,तब तू चुरा-चुराकर क्यों खाता है ? छोड़ दे ,यह आदत; वरना दो रोटी से भी जायगा । लेकिन वह है कि आदत से लाचार;मेरी बातों पर ध्यान ही नहीं देता । आज भी वही हुआ; खामखाह बहू के हाथों मार खाया और अब सिसक-सिसककर रो रहा है । बुदबुदाती हुई बड़ी मुश्किल से दादी खाट से उतरकर भिखना के पास कीचन में गई और बिना कुछ पूछे उसके गाल पर एक तमाचा जड़ दी । बोली ’तुम्हारा यही हस्र होना चाहिए था । मैं तुझे मना करते-करते थक गई; लेकिन तू है पतीता, अपने स्वभाव से बाज नहीं आता । आज फ़िर तूने मेरी बात को ताख पर रखते हुए अपनी मनमानी की । ऐसा तूने क्यों किया ?’ दादी की बात सुनकर भिखना, जो सिसक-सिसककर रो रहा था,अब जोर-जोर से रोना शुरू कर दिया । दादी समझ गई,’ इसमें तेरा कोई दोष नहीं , दोष तेरे करम का है, जो यह सब दिखला रहा है । नहीं तो, तेरे ही उम्र का, विजय ( अपने पोते को दिखलाते हुए ) खुद से स्नान भी नहीं कर सकता और तू है कि दिन-रात जूठे बर्तन को घिसता रहता, फ़िर भी तुझे फ़टकार के सिवा कुछ नहीं मिलता । बोल रे बदनसीब,’ क्या आज फ़िर तूने फ़्रीज़ से निकालकर दही खाया है ।’ भिखना ने कहा--- ’नहीं दादी ! मैंने फ़्रीज़ से निकालकर कोई दही नहीं खाया । दादी झल्लाती हुई,’ तो बहू ने तुमको अपने शौक के लिए पीटा ?’ भिखना ने उत्तर दिया,’ पता नहीं ,दादी !’
दादी --- तू रोज झूठ बोलता है । सच क्यों नहीं बताता ? तभी अपने कमरे से बौखलाती हुई मीणा निकल आई, बोली,’ माँजी ! बहुत हो गया ; वह कब सच बताया है, जो आज बतायेगा ? मैंने इसे अपनी आँखों से दही पीते हुए देखा है ।
दादी, बहू को बीच में टोकती हुई,’ बहू ! यह तुम्हारी आँखों का धोखा भी तो हो सकता है ?’ बहू---’माँजी ! क्या अब मुझे आपकी आँखों से देखना पड़ेगा ?
दादी --- नहीं बहू ! कुछ दिनों बाद, तुम्हारी आँखों से तो मुझे दुनिया देखनी है ।
तू क्यों मेरी बूढ़ी और कमजोर आँखों से दुनिया देखने की बात करती है ?
बहू – तब फ़िर आप क्यों ऐसा बोल रही हैं,कि मेरी आँखों को धोखा हुआ है ?
दादी – वो,इसलिए बहू कि भिखना ऐसा बच्चा नहीं है,कि फ़्रीज़ से कोई चीज बिना तुमसे पूछे निकालकर खा ले ।
बहू – ठीक है,तो आप इस छोकड़े से ही पूछ लीजिए । अब यही आपको सच-सच बतायेगा ।
दादी (गरम होती हुई, भिखना से) -- सच-सच बता, रे नासपीटे ! बात क्या है ?
भीखना रोता हुआ --- दादी ! जब आप, मालकिन, भैया, मुन्ना,सबों का खाया हो जाता है, तब मैं जूठे बर्तनों से लगे हुए दही को पानी से धो-धोकर एक जगह जमा करता हूँ । बाद उसे पी जाता हूँ । आज भी यही हुआ,जब मैं पी रहा था, भाभीजी ने देख लिया ।
दादी – तूने बताया नहीं कि यह दही फ़्रीज़ की नहीं,बल्कि जूठे बर्तनों से जमा किया है ।
भिखना – बताने से पहले ही भाभीजी ने मुझे मारना शुरू कर दिया ।
दादी --- सुन लिया बहू ।
बहू --- हाँ, सुन लिया और समझ भी लिया । दर असल आप की बूढ़ी आँखें , अपना अच्छा-बुरा तो देख नहीं पातीं , दूसरों की क्या देखेंगी ? आप एक काम कीजिए, आज से आप ही इसे संभालिये । मेरा तो कुछ बोलना ही गुनाह हो जाता है । तभी राकेश ( दादी का बेटा ) चिल्लाता हुआ क्या बात है मीणा ? आज फ़िर भिखना फ़्रीज़ से दही निकालकर खाया ?
मीणा --- खाया ही नहीं; मैंने उसे खाते हुए रंगे हाथों पकड़ा भी,लेकिन माँजी हैं कि मानती ही नहीं । कहती हैं,’ तुम्हारी आँखों का धोखा है,वरना भिखना ऐसा नहीं कर सकता ।
राकेश पत्नी का पक्ष लेते हुए ,’ माँ को सदा से अपने बच्चों से अधिक प्रिय, घर के नौकर और आस-पड़ोस के बच्चे रहे हैं । आज यह कोई नई बात नहीं है । तुम अपने कमरे में चलो; एक है बेवकूफ़,दूसरी समझती नहीं । ऐसे में अपना समय व्यर्थ क्यों बरबाद करती हो, अपने कमरे में चलो । तुम्हारी भी तो गलती है । तुमने पीते हुए कटोरे को उससे छीनकर माँ को दिखाया क्यों नहीं ?
मीणा --- दिखाने जा रही थी, इसके पहले ही माँजी सर पर आसमान उठाकर नाचना शुरू कर दीं । दिखाने का मौका कहाँ दीं ?
राकेश – क्या वह कटोरी अब भी है ?
मीणा—हाँ, है न,कहती हुई बेसीन के पास से कटोरी उठाकर पति के सामने रख दी और दादी की तरफ़ आँखें तरेरते हुए कही; माँजी आप भी देख लीजिये । यह दही है या नहीं ?
दादी बहू की बातों में हस्तक्षेप करती हुई,’मैंने कभी नहीं कहा कि भिखना दही नहीं पी रहा था । मैंने कहा, भिखना दही तो पी रहा था, मगर जूठे बरतनों से जमा कर ।
राकेश को माँ का इस प्रकार पत्नी से बातें करना, पसंद नहीं आया और झुँझलाते हुए बोला, ’मीणा ! तुम अपना सर व्यर्थ खफ़ा रही हो । छोड़ो भी; यहाँ एक बहरा है ,दूसरी आँखों से अंधी । ऐसे में तुम्हारी बातों का असर नहीं होने वाला । इसलिए ,भिखना जो भी करता है, सब ठीक है ।
दादी ,बेटे को समझाती हुई—बेटा ! दही की कटोरी तो रखी हुई है। एक बार देख तो ले, कि यह क्या है ? लेकिन पत्नी के साथ बेरूखी से विजय सर से पाँव तक घायल हो चुका था । वह खुद को संभाल नहीं सका और कटोरी उठाकर अपनी बूढ़ी माँ की तरफ़ फ़ेंकते हुए, कहा,’ तुम देखो, मुझे नहीं देखनी । कटोरी छिटककर दादी के सर से जा टकराई और दादी कराहकर वहीं बैठ गई । दादी को चोट लगता देख, भिखना और रोने लगा और बोला,’ दादी, मुझे माफ़ कर दो, अब मैं जूठे बर्तनों को धोकर बहा दूँगा, लेकिन कभी पीऊँगा नहीं ।
दादी बिन माँ-बाप के भिखना को सीने से लगा ली और बोली, अरे नसपीटे ! तू भूल क्यों जाता है कि तू वह बदनसीब है, जिसका न ईश्वर हुआ, न आदमी ही । इसीलिए तो मैं तुझे करमजला कहती हूँ ।
Powered by Froala Editor
LEAVE A REPLY