कवि
कहते हैं जब कवि, किसी अरूप भाव को
पकड़कर उसे रूप देने चिंतन की खाई में
धँसकर एकांत लीन हो जाता है , तब
छंद- बंध की सारी काराएँ टूट जाती हैं
भावों का आवेग इतना प्रबल होता है
सूरज - चाँद - तारे , सभी बह जाते हैं
सुर- देवता, गुरु – ग्यानी, ध्यानी
गिरि- गगन, पवन कोई व्यवधान नहीं डालते
कलम की नोक में विश्व सिमट आता है
शब्द-शब्द बोलता है, समस्त शैल डोलता है
विचारों के वाण नहीं होते , बावजूद
कल्पना की जिह्वा में धार होती है,तभी तो
कल्पना आत्मा को फ़ोड़कर,जब निकलती है
तब कवि के मन का केवल ताप ही नहीं
रिमझिम बरसात भी लाता है
आशाओं से रहित, भाग्य से हीन
कुम्हलाती कलियाँ, खिल-खिल उठती हैं
नाद भरे झंकारों में ज्वाला होती है
युग के मूक हृदय में किस वृत पर कौन
गंध बाहर निकलने छटपटा रही है
आकृति कौन, कौन है दर्पण, कवि
भलीभाँति जानता है, तभी तो
अगेय स्वप्न का श्रोता मन, कवि को
युग - द्रष्टा, योगी कहा गया है
भले ही मदिरा के गंध -गात्र को न छुआ हो
अपित रसपात्र अचुम्बित हो,फ़िर भी जिसकी छाया
दीख रही, कवि उसे अपनी कल्पना के
प्याले में ढाल - ढालकर, खुद तो पीता ही है
तृषित जग को भी पिलाता है
स्वर्ग- हृदय का संदेश सुनाने वाला, कवि भले ही
एक फ़ूल नहीं चढाया हो, प्रतिमा पर
भारत माँ की, आराधना रोज करता आया है
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