Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
Administrator

खतम हो गया खेला

 

खतम हो गया खेला


आँखों की खिड़की से खड़ा
मैं देख रहा अकेला
शमा की झालरें खुलने लगीं
चतुर्दिक घिरने लगा अंधेरा

कोटि-कोटि वर्षों का क्रममय
जीवन में खो जाने, कुछ
लोग पहले ही जा चुके
कुछ जा रहे , कुछ
कर रहे, जाने की तैयारी
लगता खतम हो गया मेला

कोई पोछ पसीना कह रहा
अब नहीं हमें यहाँ आना
यहाँ विश्व विटप की डाली को
झकोर हिलाता, पाँव के
नीचे सिंधु उत्ताल लहराता
भयभीत मनुज जीवन पर्यंत
अपना पाँव समेटे जीता

बड़ी निर्घृण होती इस मर्त्त-
लोक पर मनुजों की जाति
आज काया की धूम होती
सुबह के पहले ही बुझ जाती


आकाश, मनुज की सिसकियों
और चित्कारों से भरा रहता
अंधेरे में भी उठ खड़ा हो
जाता, अंतर मन की बेकली
ताम्र व्योम सा मानव वन में
जब प्रकृति तपती , तब
जाकर जीवन को मिलती, गति



Powered by Froala Editor

LEAVE A REPLY
हर उत्सव के अवसर पर उपयुक्त रचनाएँ