किसान चिर पवित्र होकर भी घृणा से पालित क्यों
खुद को देशभक्त कहनेवाले , क्या तुमने कभी
विश्व उपेक्षित , अशिक्षित, गंदे वसन पहनने वाले
मगर हृदय साम्य -सौहार्दपूर्ण , किसानों के संग
एक रात भी , गाँवों में जाकर बिताया है ,जाना है
क्यों चिर पवित्र होकर भी, घृणा से पालित वे हैं
भूख – प्यास से पीड़ित उसकी भद्दी आकृति
हमारे ही देश केइसी युग की संस्कृति है
इनके निखिल दैन्यदुर्भाग्य, दुख का कारण क्या है
धूलों में जो चरण चिह्नहैं अंकित, किसके हैं
जिसके श्रम से सींची जाती समृद्धों के पेट की भूख
जो युग - युग के इतिहास , सभ्यताओं में हैं संचित
उनके घर - घर के बिखड़े पन्नों में नग्न , क्षुधार्त
कहानी क्यों है, सदियों से इन किसानों पर अत्याचार
क्यों होता आया,इसमें इनका दोष क्या है,तुम्हीं कहो
क्या ये लोग शिक्षा के सत्याभासों से पीड़ित नहीं हैं
तुम तो ठहरे गगन में उड़ने वाले गगनचारी , सोचते हो
कहीं फिसल न जाए पाँव तुम्हारे, नीचे धरा है कीचड़ भरी
तुम बिजली के चकाचौंध में , तुम्हारे तीसो दिन हैं दीवाली
तुम क्या जानोकिसानों के जीवन में क्यों मौन आता प्रभात
संध्या रहती उदास भरीयहाँ फूल है, ओस है, कोकिला गाती
डाली – डाली फिर भी यह मानव लोक लगता , खाली - खाली
तुम क्या जानो गाँव के कूपों पर अंकित है किसकीकरुण
कहानी, क्यों असमय सूखी जा रही कलियों सेलदी द्रुमाली
खुद को स्नेह, सलिल से सींचते हो, आँगन में अमृत उलिचते हो
जल रहे हैं भूख की आग में, मरे जा रहे हैं क्यों औरतें,बूढे,बच्चे
जवान , कभी गाँव में जाकर पूछते होकर्पूर गंध-सी उड़ जाती
जवानी में ही है इनके यौवन , मौतगिनती साँसों पर बैठकर
जीवन की घड़ियाँ , कलेजे के टुकड़ेको माँ बेच रही दो आने में
क्यों , जाकर कभी पूछते हो , नित एकता का पाठ पढाते हो
देश को एक रखने की बातें करते हो तुम गौरव कामी हो
तुम्हारी आँखों पर पड़ी हुई है हरी ऐनक, दोपहर कीधूप
आँखों में कैसे कड़कती है, तुम क्या जानो
शक्ति के मद में चूर तुम सोचतेहो
इस मर्त्तलोक में तुम एकमात्र बुद्धि विजेता हो
किसान तो जन्म से लेकर मृत्यु तक दुख में जीता है
उसे क्या पता,अंधकार में उगनेवाला चाँद-सूरज नहीं है
यह वहम मात्र है तुम्हीं सोचो , जो जगत के मरु में
शीतल नीर बहा सकता है , खींच रसातल से रस को
तुमको पिला सकता है, क्या उन्हें अपने
अच्छे - बुरे का ग्यान नहीं है, तुम गलत सोचते हो
तुमको रजनी से क्या लेना, तुम्हारे जीवन में, तो
साँझ के बाद आता भोर तुम्हारे एक आँख में धन-
वैभव की लाली , दूसरे में रहता मदिरा का लोभ
तुमको देखकर कौन कह सकता, तुम इसी जमीं
के रहनेवाले हो, तुम तो आसमां में जाकर
क्षितिज के पास जो कंचन सरोवर है, उसमें नहाते हो
सितारों की जमीं पर बिछी ओस की नमी तुमको प्यारी है
फूलों के वन में जाकर क्लांत मिटानेवाले , तुम अपने
कर्म पथ पर निज जीवन का रथ दौड़ाकर, हम जन-गण
के भ्रम - जाल को तोड़ने में बड़े ही माहिर हो
तुम्हारी अभिलाषा सदा रही,रवि-सा उगा रहूँदिन-रात
अम्बर में,जीवन का समापन कभी न हो,किसका लहू
किसका अवसान हुआ, ऐसी व्यर्थ कीचिन्ता करक्यों
व्यवधान डालूँ अपने जीवन में युगों से आदमी
आदमियत के लहू से स्नान करता आया, मृत्ति पर
लाल रेख खींचकर जीता आया, जिसके भाग्य में जो
लिखा है, वह सहता है, उसमें दूसरा कोई भागी क्यों हो
अमरता के लोभ में, भूमि में विलय हुए
मौन तरंगों को पीनेवाले तुम नहीं जानते
इस मर्त्तलोक में कुछ भी अमर नहीं है, फिर
मनुज तो मिट्टी का खिलौना है, उसके गलने
के लिए पानी की दो बूँदें काफी हैं
अभी भी देर नहीं हुई है , निज दृष्टि के
तुला पर रखकर, परख कर देखो , कोटि - कोटि
तर्कों के भीतर बैठती नहीं अब तुम्हारी युक्ति
अपनी उँगली के धक्के से खोलो जाकर अखिल
किसानों के लिए आशा का द्वार पूछो उनसे उन्हें क्या
चहिए, खुद भी जीओ, किसानों को भी जीने दो
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