किसके गले लगें हम,कोई अपना नजर नहीं आता
अवसर परस्त है दुनिया, इनसान नजर नहीं आता
कहाँ जाकर दिवाली मनाएं हम ,छतें तो मिलती हैं
मगर अपने ही घर में , घर नजर नहीं आता
उसके घुँघराले जुल्फ़ की तारीफ़ अब क्या करें हम
पहले की तरह जुल्फ़ में पेंच नजर नहीं आता
मेरी बर्बादी में उसका भी है, बराबर का हिस्सा
भले ही आँखों में उसका किरदार नजर नहीं आता
हजारों रात मेरे संग, मेरी बाँहों में गुजारी,आज
कहती है,तुम्हारी आँखों में ख़ुमार नजर नहीं आता
मोहब्बत में और करें भी तो क्या करें हम,तुम सा
कोई दूसरा तलबगार भी तो नजर नहीं आता
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