Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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किसकी स्मृति शूल सदृश साल रही

 

किसकी स्मृति शूल सदृश साल रही



जहाँ अनंत का मुक्त मन अपने  में है मग्न 

कोमल  कलियों  की  पँखुड़ियों  में  सौरभ है बंद 

प्रिये ! ऐसे में  से ढूँढ रहे तुम्हारे अपलक नयन 

तुम्हारी वाणी में करुणा,  दुख है जल रहा

कौन है वह तेरा अपना,जिसकी यादों का चिंतन 

शूल सदृश तुम्हारे उर को दर्द बनकर साल रहा


है यह कैसा दुख जो तुम्हारे मौन मुकुल  से

कढकर अनल बन  तुम्हारे साँसों में घुल रहा

निज शक्तिसे,तरंगायित,अम्बु सा ह्र्दय तुम्हारा

जीर्ण पत्तों की भाँति धू – धूकर जल रहा

छोड़ो सोचनाधर्म का दीपक क्यों बुझा भुवन में

क्यों काल बन तिमिर धरती पर रहता छाया

चलो,   तुमको ले चलता हूँ  मैं आज वहाँ

जहाँ नीरवता भी सिर सहलाती  विश्वास भरी

स्वर लहरी का शब्द संजीवन रस में रहता घुला


ऐसे भी यह भुवन जिसमें मिटते-जनमते बहु तन 

हर क्षण रहता शिशिर निदाघ से भराहुआ

विघ्न -बाधा काल बन विचरण करती यहाँ  

हर पथ  में  होते  काँटे हर  राह होता पंक  भरा

श्रांत  सुर सरिता  भी जीती होकर क्लांत यहाँ

घन बरसाता जल संग मौत कहने को है रत्न भरा




मैं देख रहा हूँ सजग अनिद्र दृष्टि,क्षण-क्षण तुम्हारी कह रही

तुम्हारे कोमल मन पर है , किसी नेनिष्ठुर आघात किया

आग होता दिल मेंतभी आँखों में पानी भरता

चोट जिसकी  जितनी  गहरी होतीघाव उतना गहरा होता

फिर भी धर्म प्रतिनिधि सोमलता सेआवृत अधर तुम्हारा

मिथ्या हँसी की आढ  लेकर तुम को ही है छल रहा


प्रिये! यह विश्व बंधा  है एक नियम  से

यहाँ सृष्टि और महानाश के बीच 

आत्म -तुष्टि की जगह नहीं होती

जब  तक मोती -सा कठिन पारदर्शी अश्रुजल 

तुम्हारे नयन में रहेगा  भरा,   तब तक 

तुम्हारे मन  की ज्वाला नहीं मिटेगी क्योंकि

इसमें दिवा श्रांत की आलोक रश्मियाँ रहतीं घुली


अब छोड़ो सोचना,किस -किस की चेतना

तुम्हारे आंचल की छाया में बनी निर्मल 

किस-किस पर अपनी ममता निर्झर से

जीवन के अखिल ताप को किया शीतल 

मैं तो बस इतना ही कहूँगा तुमसेजो

कला मुकुर  बन गईं तुम्हारे हाथों में 

वे भूल गये मातृ प्रकृति कोउन्हें याद 

नहीं अब किसकी गोद में वे खेले -कूदे

कहाँ  हँसेबड़े हुए किसके आँचल में




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