कोयल काली
अहिंसा की असिधारा पर , अपने मुक्त
पंखों को फ़ैलाकर , नील नभ की
दुष्कर यात्रा करने वाली , कोयल काली
तेरा वास दूर छाया वन के ऊँचे तरु पर
तेरा न कोई गुरु , कौवे के बीच पली तू
अंधकार की है छाया का रूप तू, फ़िर किसने
सिखाया तुझको , चुन – चुनकर लघु -
लघु , तृण – खर - पातों से नीड़ बनाना
डाली – डाली पर फ़ुदक - फ़ुदक कर,मर्माहत
जग को उल्लसित करने,लय-रस-छंदों में गाना
कौन बताया तुझको,आकाश की गहराई
को मापना और सागर को थाहना
किसके बहकावे में आकर तू अपने
स्वर्ण- हृदय को काले रंग में रंगवा लाई
जो चाहकर भी तू किसी कवि
मन की कल्पना न बन पाई
न ही कनक पिंजरे में तू गई पाली
कौन झील , कैसा वहाँ का पानी
जहाँ तू रोज नहाया करती , जिसने
तेरे रंग-रूप को,निखरकर फ़ूटने नहीं दिया
काली पड़ गई तेरी पंखड़ी
भले- बुरे की जब तुझको पहचान नहीं
तू क्या ज्वर - भीति जग को
सुधायुक्त कर सकेगी बावड़ी
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