क्या रखा है उस पार
प्रिये ! जब से तुम गई उस पार
तब से आसमां पर, सूरज
लौटकर एक बार भी नहीं आया
तिमिर ही तिमिर है इस पार
जड़ता सी शांत नयन व्योम की
नीलिमा में मरु रहता फ़ैला हुआ
रवि से झुलसते, मौन दृग को
कुछ दिखाई नहीं पड़ता
नीरवता की गहराई में, मैं बैठा
अकेला, जीवन से गया हूँ हार
मगर दूर आँखों की निस्सीमता में
जल रही तुम्हारी चिता की आग से
जब - तब रोशनी फ़ैल जाती मेरे आस-पास
जिसमें विदा रात की आँखें मुँदी छवि तुम्हारी
दमक उठती ,लहरा उठते काले तुम्हारे बाल
लगता मानो, सौन्दर्य सरोवर की कोई
लज्जित, संकुचित नव तरंग, अपने
पिया समीर संग,उड़ना तो चाहती
मगर उड़ नहीं सकती
अंक में ली हुई है क्षार
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