Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
Administrator

क्यों काँप रहा तुम्हारा तन

 

क्यों काँप रहा तुम्हारा तन



प्रिये ! निज जीवन के मलिन पृष्ठ पर

किस   अतीत   का   चित्र   बनाकर

तुम   भर   रही   हो  उसमें , अपने

विफ़ल     लालसाओं    का     रंग

जिसे  देख -देखकर तुम्हारी पलकों पर

रुदन – हास  बनकर  छलक  रहा  है

भय कंपित हो,काँप रहा है तुम्हारा तन


मेरी मानो ! विचित्रता के इस संसार में

जिस  पावन  धारा  को तुम, अब तक

छू  न  सकी , उसे  अपने  जीवन के

रिक्त  घट  में  भरने  की जिद्द छोड़ो

और   जीवन   की   क्षण  धूलि  रहे

सुरक्षित     कैसे   ,  उसकी   सोचो


मैं जानता हूँ, वर्षों की घनीभूत पीड़ा

जो  अब  तक , तुम्हारे  हृदय  में 

स्मृति  बनकर  कर  रही थी क्रीड़ा

वही  आज  आँसू  बनकर  तुम्हारी

आँखों  से झड़- झड़ कर झड़ रही है

और  तुम  बूँद- बूँद में कर रही हो

अपने  जीवन  स्वप्न  का विसर्जन





बढ़ती  रहे  मेरी  आहुति  के  धूम  गंध  से

उसकी  सुख - समृद्धि, बरसती    रहे  उसके

जीवन – पथ  में,  रसभार   प्रफ़ुल्ल   सुमन

यह सोचकर तुमने तो पहले ही दान कर चुका

अपने   जीवन   सपने   के  सोने  से  रंग

अब  उसके  टूट जाने  के  भय  से ,  क्यों

चिंता   कातर   हो   रहा   तुम्हारा   बदन

क्यों  आकुल  प्राण  तुम्हारा  कर रहा गर्जन


जब  कि  तुम  भलीभाँति  जानती  हो

जीवन   सिंधु   की   राह  में   चलते-

चलते,   जब   शाम   ढ़ल   आती  है

तब     घोर     तिमिर    के    बीच 

अपनी  भी   पहचान   मिट  जाती  है

हाथों   को   हाथ   साथ   नहीं   देता

फ़िर भी प्राणों की तृष्णा मंद नहीं होती है


इसलिए  अपने  अतीत के बेरंग

हुए    भ्रमजाल   को   समेटो

कभी- कभी पीड़ा की दवा में भी

होती है नई पीड़ मिली, सोचकर

लूटा भाग्य ने, या छला मैत्री ने

जो   बीत   गया , उसे  भूलो

Powered by Froala Editor

LEAVE A REPLY
हर उत्सव के अवसर पर उपयुक्त रचनाएँ