लांछन
किशोर अपने मित्र रमेश से कहता है----जानते हो रमेश ! अपना पड़ोसी कुंवर तो यही जानता है कि उसकी पत्नी शीला घोर पतिव्रता है; राह चलते उसकी आँखें जमीन पर से ऊपर उठतीं नहीं, लेकिन उसे यह नहीं पता , कि शीला का मन फुदकने वाली चिड़िया है, जो कभी इस डाल , तो कभी उस डाल, जब उसके ऑफिस चले जाने के बाद वह बन-ठन कर, खिड़की पर खड़ी होती है | तब मोहल्ले के शोहदे उसे देख-देखकर जानते हो, क्या बोलते हैं ?
रमेश ( किशोर का पडोसी ) रक्त -शोषक दृष्टि से किशोर की तरफ देखकर कहा --- नरक में जाओगे तुम, ऐसी बातें मुँह से निकालते तुम्हें शर्म नहीं आती, किसी और के बारे में बोला होता, तब मान भी जाता, तुम शीला बेटी के बारे में बोल रहे हो ; धिक्कार है तुमको | अरे ! वह तो एक देवी है , देवी, ईश्वर की परम भक्तिन , नींद खुलते ईशोपासना में लग जाती है | माँ काली की मूर्ति को नहला—धुलाकर , फूलमाला चढ़ाकर पहले आरती करती है , बाद अपने पेट-पूजा की व्यवस्था करती है , और तुम उस पर यह लांछन लगा रहे हो , कि वह बदचलन है | तुम जीते जी नरक में जावोगे |
रमेश की बात ख़तम होते ही किशोर जोर-जोर से खिल-खिलाकर हँसने लगा | किशोर के इस कदर हँसने का आशय रमेश को समझाने में देर न लगी, कि इस हँसी में व्यंग्य के कितने जहर घुले हुए हैं | रमेश कुछ देर चुप रहा , फिर कहा ---- क्या अपने जीवन को रसमय बनाने के लिए तुम्हारे पास केवल एक ही उपाय है | चलो अच्छा है , आत्मविस्मृति , जो एक क्षण के लिये भी अगर संसार की चिंताओं से मुक्त कर दे, तो क्या कम है ?
रमेश की बात सुनकर , किशोर की आँखों से आग झरने लगा | वह रक्त शोषक नजरों से, रमेश की ओर देखकर बोला ---- तुम क्या सोचते हो , अपने स्वार्थवश मैंने, कुंवर की धर्मपत्नी का यह सब बोलकर अहित किया |
रमेश गंभीर हो कहा ----- बिल्कुल ठीक कहा तुमने, एक अबला पर लांछन लगाकर, जो किया, उसके प्रायश्चित में आगे का जीवन मुँह की कालिमा धोने में लगा दो , तो उपयुक्त होगा |
रमेश की तरह ,किशोर तार्किक और व्यवहार चतुर नहीं था , इसलिए वहाँ से चले जाने में ही उसने अपनी भलाई समझी |
एक दिन किशोर की बेटी सुनीता से अचानक रास्ते में रमेश की मुलाक़ात हो गई | सुनीता ,देखते ही दूर से बोली --- हेलो चाचा ! कैसे हैं ?
रमेश सकपकाते हुए कहा ---- ठीक हूँ , बेटी , बाजार जा रहा हूँ दवाई लाने, और मन ही मन कहा----- हमारी सभ्यता का आदर्श इतना ऊपर उठ चुका है, कि अब अपने पिता समान बड़े बुजुर्ग का पैर छूने में घृणा होती है | इससे तो अच्छी शीला है जो देखते ही घूँघट खींच लेती है , और दोनों हाथों से पैर छूकर, आशीर्वाद माँगती है | क्या ही कुलीन परिवार से है ! ऐसे गऊ को बदनाम करना पाप है ; अपना घर तो सँभालता नहीं , चला है ,दूसरे की बहू-बेटियों की निंदा और बदनाम करने |
दोपहर का वक्त था ,कुंवर (शीला का पति ) रमेश के घर आया और बातों-बातों में बताया --- चाचा, शीला कई दिनों से बीमार है, इसलिए एक बार चलकर देख लेते | मेरे पिताजी का कहना है कि रमेश चाचा को अगर एक बार दिखा सको , तो वह जल्द ठीक हो जायगी , क्योंकि वे एक पढ़े-लिखे वैद्य हैं | उन्होंने रोग-दुःख की ही तो पढ़ाई की है, इसलिए मेरी आपसे निवेदन है, कि एक बार आप चलकर शीला को देख लेते |
रमेश मुस्कुराते हुए कहा --–चलो, मैं अभी आता हूँ |
कुंवर ---- अच्छा कहकर घर जाने लगा, और मन ही मन यह सोचता रहा ---- सचमुच पिताजी ने जैसा बताया था, वैसे ही हैं रमेश चाचा | ऐसे आदमी के लिए धन तुच्छ है,वरना पूछते, कि मेरी फ़ीस जानते हो !
सचमुच सभ्यता से ऊँचा ,धन का स्थान नहीं होता | जो आदमी पैसे को भगवान समझते हैं , वे सभ्य नहीं हैं | ऐसे मनुष्य संसार के लिए अभिशाप हैं, और समाज के लिए विपत्ति |
रमेश चाचा जब, किशोर के दरवाजे पर पहुँचे , देखा ऊपर की खिड़कियाँ बंद हैं | अचरज हुआ, जो खिड़कियाँ कभी बंद नहीं होती थीं , वह बिलकुल बंद है | उन्हें चिंता होने लगी, उनका विस्मित कदम बढ़ता हुआ आँगन में एक चारपाई के पास जाकर रुक गया, देखा ---- शीला लेटी हुई है ,उसकी आँखें खुली हैं , मगर शरीर अचेत है | उन्होंने उसे धीरे से आवाज दी ----शीला ! मैं रमेश चाचा ; पहचान रही हो बेटा | सुनते ही जाने शीला में कहाँ से वो ताकत आ गई ,कि वह बिजली की तरह उठकर बैठ गई | घूँघट निकाल कर मुँह ढँक ली और शिकायत के स्वर में बोली ---- चाचा ! जिस निधि को पाकर मैं विपत्ति को संपत्ति समझकर जी रही थी, जिस दीपक से आशा, धैर्य और अवलंब पा रही थी, मुझे क्या पता था कि वह मेरे अंधकारमय जीवन का दीप नहीं है | उसकी बातों को सुनकर रमेश चाचा विचलित हो उठे और पूछा --- बेटी ! यह आज तुमको क्या हो गया है ? अभी तुम बीमार हो, कमजोर हो ; ऐसी हालत में इस कदर की बातें करना ठीक नहीं है | लेकिन शीला ,जिस विभूति को पाकर ,ईश्वर की निष्ठा और भक्ति , उसके रोम-रोम में व्याप्त हो गई थी ; वह विभूति उससे जबरन छिन गई थी | वह अस्थिर नेत्रों से रमेश की ओर देखकर बोली ---चाचा ! आप कहते हैं , चित्त को शांत रखो और बताओ, तुमको क्या हुआ है ? चाचाजी --- क्या आप भी यही जानते है, जो मैं जानती हूँ ?
रमेश , निराशा से विकल हो बोला---- तुम क्या जानती हो बेटी ?
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