Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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लौटा दो वह बचपन मेरा

 

लौटा दो वह बचपन मेरा

ओ चित्रकार ! एक करुणा करो मुझपर
मेरा भोला बचपन ,लौटा दो मुझको
अपनी स्मृति के तूलि से इन
कोरे कागज के पन्नों पर,रेखांकित कर
वर्षों बीत बीत गये,कुछ याद नहीं अब मुझको
कैसे चलता था मैं,पेट के बल सरक-सरककर
कैसे आँगन में गुंजती थी किलकारी मेरी
कैसे बैठता था मैं,अपने दोनों टाँगों को फ़ैलाकर
कैसे रोता था मैं, माँ का आंचल पकड़कर
कैसे सुलाती थी माँ,गोद में उठाकर,थपकी देकर
कब यौवन के मादक हाथों ने आकर
छीन लिया मेरे बचपन के तुतलेपन को
मेरे बालपन की कोमल कलि का मुख खोलकर
कब गुम हो गई, कहाँ किस अंधकार में
विलीन हो गई माँ की वह लोरी, जिसे
सुनाती थी वह मुझे, रातों को जाग-जागकर

कहाँ छुप गया, वह चंचल, सुंदर मुखड़ा मेरा
जिस पर खेलती थी,नव-नव कुसुमों की लाली
प्रेम प्रणत हो ,कौतुहलता करती थी क्रीड़ा
संध्या के झुरमुट में,आँगन के मुड़ेर पर से
गला फ़ाड़- फ़ाड़कर बुलाते थे, मुझको
कौवा, कबूतर, मैना, कोकिला और गोरैया
कहते थे देखो!तुम्हारे चपल,पावन पदाचार से
आह्लादित होकर नभ- नील में उतरने लगी
संध्या सुंदरी, मुग्ध स्निग्ध उल्लास
जल बन लगा, हिलकोरे लेने
अब तुम जाकर, सो जा मेरे भैया


मैं भी बुलाता था उसको,दोनों हाथ हिला
-हिलाकर, झुनझुने को बजा –बजाकर
नीले, पीले ,लाल खिलौने को दिखलाकर
वह भी निभाता था अपनी सहज
सरल शिष्टता, पंख को फ़ड़का-फ़ड़काकर

माटी सना, धूल भरा, नग्न देह मेरा
मोहता था सबके नयन, मन को
माँ कहती थी, यही तो है मेरे हृदय का
वह सिंधु तट,जिसे खोज रही थी मेरी मन-विभा
आकाश का चाँद देखकर पिता कहते थे
ऊपर का चाँद तो सबका है,यह चाँद है सिर्फ़ मेरा

ओ चित्रकार ! एक और करुणा करो मुझपर
मेरे यौवन के अंचल में, लाकर थिरकते पग
सँभलते नहीं सँभाल ,ऐसे बालपन को बिठला दो
उसकी सुधा-स्मिति में,माँ का वह रूप भी दिखा दो
जिसे देखे वर्षों बीत गये,जिसके लिए शिशिर–सा
झड़ता मेरा नयन, अधूरा लगता जीवन मेरा


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