मिट्टी तो बेदाम बिकती
अरूण पंख का तरुण प्रकाश, अब
खोलता नहीं,आकर मेरे घर का किवाड़
फ़िर कौन है वह जो सीमा की सभी
प्रथाओं को लांघ, मेरे हृदय वेदना के
मधुर क्रम में आता मेरे पास
शिरा- शिरा में शोणित व्याकुल हो
तरल आग बनकर, दौड़ने लगता
आदि -अंत कुछ दिखाई नहीं पड़ता
थकी.चकित चितवन अधीर हो ढूँढ़ता
धरा से निकल भागने की राह
मूर्ति बनी सी अभिशाप -सी सम्मुख
आ खड़ी हो जाती, गई जवानी मेरी
कहती स्नेहपाश में बंधे समुज्ज्वल
तभी तो सलिल सी बहती आग पिघल
धरती के पुलिनों में सूरज की आकांक्षाएँ
आंदोलित हो,गिर-गिर फ़ैल बनता प्रकाश
मूल क्षय होती जा रही जवानी, पूछती
किस सुख के लुट जाने की आशंका में
तू निद्रा विजयिनी–सी,रात रही है जाग
जब कि आशा के मरुस्थल के तपन में
जलकर,तेरा सब कुछ हो चुका है खाक
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