Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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माटी का बिरुवा

 

माटी का बिरुवा

कहते हैं , मनुष्य पर उसके नाम का भी कुछ असर पड़ता है, पर मुझ पर यह यथार्थ सिद्ध न हो सका | माता-पिता ने मेरा नाम रखा था ‘तारा’ ; वही तारा जो आकाश में चमकता है | हर कोई चाहता है जिसे पाने बच्चे, बूढ़े , जवान सभी ललकते हैं, सभी चाहते हैं  कि वह मेरा हो, लेकिन मुझे चाहनेवाला , मेरी दादी के सिवा दुनिया में कोई नहीं था | मैं भी दादी से बहुत प्यार करती थी , लेकिन जब भी दादी की आँखों में झाँकती थी, लगता था ,वहाँ हाहाकार मचा हुआ हो | मुझे देखते ही उनका प्राण पिघलकर आँसू बन आँखों से बहने लगता था | गुस्सा और क्रोध को तो मानो उन्होंने जीत ही लिया था | ऊपरवाला ही जाने , उनकी बूढी आत्मा में इतनी शक्ति कैसे थी ,कि पति , बेटा ,बहू , सर्वस्व लुट जाने के बाद भी ईश्वर से नहीं डरती थी , कहती थी ---‘विधाता का कठोर -से -कठोर आघात भी अब मेरा क्या अहित कर सकता है ? यह कहते, दादी की आँखें डबडबा आती थीं | जब मैंने कारण पूछा ? दादी ने कहा---- बेटा , जो ईश्वर को अपने प्रभुत्व का इतना घमंड नहीं होता, तो दुःख, विपदा शेर बनकर इस धरती पर नहीं घूमता , शायद उसको भी अपनी आत्म-सुधार की जरूरत है | इतना कहती हुई दादी ने एक पोस्टकार्ड मेरी तरफ बढ़ाती हुई बोली---- देख तो, इसमें क्या लिखा है, और कहाँ से आया है ? 

            पढ़ते ही , पोस्टकार्ड मेरे हाथ से नीचे गिर गया | आँखों में अंधेरा छा गया , मुँह से एक ठंढी आह निकली | मैंने बिना समय गँवाए दादी को बता दिया----- दादी ! तुम्हारे छोटे भाई का स्वर्गवास हो गया है | दादी, बिना विचलित हुए स्वाभिमान और प्रदीप्त की मूर्ति बन पूछी ---- कब ? 

मैंने कहा --- एक सप्ताह पहले | यह सुनकर उनके मुख पर न ही चिंता थी, न ही भय | दैविक दुःख की छाया में जी रही दादी ,विधि की विचित्रता की परेशानी, उसके ओठों पे मुस्कराहट बन, जिसमें तीनों लोक के सन्नाटे को भंग कर देनेवाली रुदन छुपा था | बोली --- अब सब ठीक हो गया, अब मेरे आगे-पीछे कोई नहीं बचा, चलो चिंतारहित हो गई |

मैं पूर्ववत मौन रही | दादी निर्वाक हो बोली ---मेरा कर्मफल मुझे कहाँ लेकर जाएगा, मैं नहीं जानती ?  सुनी थी, मनुष्य के ह्रदय की व्यथा ,स्वयं भगवान के ह्रदय को दुःख पहुँचाती है , तो फिर वह दुःख देता ही क्यों है , जिससे दोनों ( भोगनेवाला और देनेवाला ) दुखी रहे ? यह सब सिर्फ बकवास है | दुःख को जब तक उसका निर्देश नहीं मिलता , वह कहीं नहीं जाता | किसी भी हाल में वह , उसकी अवज्ञा नहीं कर सकता , क्योंकि दुःख और सुख, दोनों ही तो उसके बनाए हैं | कष्ट देने के लिए , किसी भी प्राणी का निर्माण करना , मैं समझती हूँ , पाप है ; जो वह रोज करता है | फिर भी लोग, उसे पापी नहीं कहते, जाने क्यों ? फिर दादी ने उदासीन भाव से कहा ---- शायद इसलिए ,कि वो हम सबके मालिक हैं ; हमें बनानेवाला ! ‘मैं कुछ देर विचारती रही’, फिर दादी से बोली ---

दादी, जहाँ लालसा क्रंदन करती है , दुखानुभूति हँसती है , नियति मिट्टी के पुतलों के साथ , अपना क्रूर मनोविनोद करती है, यह कैसी पृथ्वी की रचना है ? यहाँ दुःख और सुख को ,स्वर्ग और नरक के बीच ,आर्त्तनादों के आचार्य ने क्यों बनाया ? अभाव, आशा, असंतोष और उस पर निष्ठुर दुखों को सहने के लिए मानव ह्रदय सा कोमल जाल फैलाकर उसमें ह्रदय सा कोमल पदार्थ भरा , जिससे कि उसके अस्तित्व का विचार कर सके | चिर पराजित मानव जन्म से मृत्यु तक यह कहता रहे , हे करूणानिधि ! तुम्हारी जय हो ; सुनकर सहसा दादी के मुख पर शीर्ण-कांति आ गई | तेजी से वह घर के भीतर गई और हाथ में एक फोटो लेकर निकल आई ; बोली---- तारा ! इसे जानती हो ? ये तुम्हारे जन्मदाता हैं, जो अब इस दुनिया में नहीं हैं | अनंत ज्वालामुखी सृष्टि के कर्त्ता , भरी जवानी में ही इसे अपने पास बुला लिया | 

मैंने देखा, यह कहते दादी की पूर्वस्मृति विकल हो उठी है | उसकी उँगलियाँ , शिशिर के पत्तों की तरह काँप रही हैं | यद्यपि दादी के चरण निश्चल थे, मगर दादी वेदना के निर्जन कानन में भटक रही थी | मैंने झटपट दादी को एक खटोले पर बिठाकर उसे एक ग्लास पिने के लिए पानी दी और कही ----दादी, एक बार ध्यान लगाकर सुनो--- स्वर्ग के विस्तृत प्रांगण से किसी की दम तोड़नेवाली कातर स्वर सुनाई दे रही है | 

दादी कुछ देर चुपचाप पूर्ववत बैठी रही ,फिर दुःख की तीव्र पीड़ा से व्याकुल हो तड़प हो उठी, बोली ----यह आवाज, तो तुम्हारे पिता अजय की है | लगता है , स्वर्ग की विभूति ख़त्म हो चुकी है | स्वर्गवासी अनाहार हैं, तभी वह मुझसे खाना माँग रहा है ; मैं अभी लेकर आती हूँ |

मैंने व्यथित स्वर में, दादी को रोकती हुई बोली --- दादी ! कहाँ जा रही हो ? लेकिन दादी कब रुकने वाली थी, वह कुछ बुदबुदाती हुई कमरे के भीतर चली गई |

मैं, मन ही मन सोचने लगी ---मानव जीवन की सबसे महान घटना , कितनी शांति से घटित हो जाती है | वह महत्वाकांक्षाओं का प्रचंड सागर , प्रेम और द्वेष , सुख-दुःख , बुद्धिबल की रंगभूमि न जाने कब और कहाँ गुम हो जाती है | 

किसी को खबर भी नहीं होती, एक हिचकी भी नहीं , एक उच्छ्वास भी नहीं, एक आह भी नहीं निकलती | सागर की हिलोरें कहाँ अंत होती हैं , कौन बता सकता ? यह मानव जीवन भी, सागर की उस हिलोर के सिवा और क्या है ? उसका अवसान भी उतना ही शांत, उतना ही अदृश्य है | कोई कहता ,अमुक की आत्मा आँखों से निकाली, तो किसी की मुँह से , यह सब बकवास है ; भ्रम है, किंवदंती है ,ऐसा कुछ नहीं होता | मैं तो इतना जानती हूँ, जीवन-चक्र की मौत एक विश्राम-मात्र है | सोचती-सोचती मैं वहीँ जमीं पर बैठ गई , और फूट-फूट कर रोने  लगी | तभी देखा, दादी एक मिट्टी का बिरुवा (बरतन) लिये सामने खड़ी है | मैंने झटपट अपनी आँखों के आँसू पोछे और दादी से पूछा ---- यह क्या है दादी ?

दादी की आत्मा यह सब बताने के लिए तड़प रही थी, वह बिना किसी लाग-लपेट के बोल पड़ी ---- तुम्हारे पिता ,जब छ: महीने के हुए , तब अन्नप्राशन के लिए इसी हांड़ी में खीर बनाई थी | यह कहते, दादी का ह्रदय खिल उठा, जहाँ अब तक भय था, वहाँ आशा चमक उठी | चारो ओर चेतना छोड़ गई | 

पास बैठी मैं, तर्क से अपने मन को समझाती हुई कही ---जिस सेवा और व्रत को दादी आधार बनाकर अपना जीवन निर्माण की है | आज शैय्या -सेवन के दिनों में भी कुछ नीचे नहीं खिसकता मालूम पड़ता है , जितना स्नेह पिताजी से उनके जीवनकाल में था, आज भी सेवा और त्याग का वही पुराना आदर्श जीवित है | बेटे की याद में दादी की सजल आँखें बरसों बाद कितना आनंद भोग कर रही थी  , इसका अनुमान कर मैं जैसे दब गई थी | आज पहली बार मुझे जीवन में एक अभाव का, एक रिक्तता का आभास हुआ | दादी, जिन यादों को सम्पूर्णत: दमन कर चुकी थी , आज वह याद , राख में छिपी चिनगारी की भांति सजीव हो गई थी | वह अपने अंत:करण में उठे तूफान को दबाती हुई मन ही मन बुदबुदाई, बोली ---- रुदन में कितना उल्लास ,कितनी शांति , कितना बल है ; जो कभी एकांत में बैठकर किसी की स्मृति में, किसी के वियोग में सिसक-सिसक कर और विलख-विलख कर नहीं रोया | वह जीवन के ऐसे सुख से वंचित है, जिस पर सैकड़ों हँसियाँ न्योछावर हैं | उस मीठी वेदना का आनंद उन्हीं से पूछो | हँसी के बाद मन तो खिन्न हो जाता है,आत्मा क्षुब्ध हो जाती है ; मानो हम थक गए हों | रुदन के बाद एक नवीण स्फुर्ति ,एक नवीण जीवन अनुभव होता है | वेदना का भार पूर्णतया तो नहीं हटता , मगर हल्का हो जाता है | सचमुच प्रेम ह्रदय की  वस्तु है , रुपये की नहीं |

    मैं प्रसन्नचित्त बनने की चेष्टा करती हुई दादी को स्मृति की वीरानियों में और भटकने से मना करती हुई दादी के चरणों को मस्तक से स्पर्श कर ( मानो उनके ह्रदय का अनुराग उम्र जा रहा हो ) मानो बचपन से आज तक की संचित निधि लुटा देना चाह रही हो ; बोली ----दादी ! पापा से कुछ बात हुई ? 

दादी बोली--- कुछ हद तक, जानते हो बेटा ,’ विराम और विश्राम से बुझनेवाला वह दीपक, आज सूरज की तरह प्रकाशमान रहता , बशर्ते कि ऊपरवाला थोड़ा धैर्य रखा होता ; उम्र ही क्या थी , लगभग तीस का रहा होगा ! तेरा तो उसके जाने के दो -एक सप्ताह पहले जन्म हुआ था | तुझे गोद में लेकर कहता था , माँ ! यह मेरे जीवन-तप का वरदान है | उसके ह्रदय में तुम्हारे लिए प्यार का उमंग था और नेत्रों में गर्व की झलक | तुम्हारी माँ भी किसी परी से कम नहीं थी; मुदुभाषिनी -सांवली-सलोनी , शांत और रूप राशि की खान थी | तुमको बड़ा होते देख, तुम्हारे पिता एक दिन कहा था-- माँ जब तारा छ: महीने की होगी , तब इसका अन्नप्राशन  खूब धूमधाम से करेंगे ; पर खीर उसी बिरुवा में बनायेंगे ,जिसमें लिए आज से 30 साल पहले तुमने मेरे लिए बनाया था और जिसे तुमने संदूक में रेशम के कपडे से लपेटकर आज तक रखा हुआ है | तब मैं हँसती हुई कही थी---हट जा पगले, बाजार में नया बिरुवा नहीं है क्या, जो मैं पुराने बिरुवे में इसके लिए खीर बनाउँगी | समाधिस्थ मैं, दादी की हर बात दिल के स्लेट पर. मन की कलम से अंकित करती रही और अचानक मुंह से निकल पडा --- नियति अपने ही मिट्टी के पुतलों के साथ इतना क्रूर व्यवहार क्यों करती है ? वह भी उसके साथ जो अपना जीवन निर्माण ,सेवा और व्रत के आधार पर कर रहा हो  |

दादी ने उपहास के स्वर में कहा---- शायद, नियति वक्त के साथ आत्म-समर्पण का निर्णय कर ली है |

मैं करुनाभरी दृष्टि से एक बार दादी की तरफ देखी , फिर बोली ---दादी वो बिरुवा कहाँ है , मुझे नहीं दिखाओगी ?

दादी ने तत्परता से कहा---- क्यों नहीं ; अभी दिखाती हूँ , चलो मेरे साथ | 

मैं, दादी के पीछे-पीछे चलने लगी | उसका दिल धक्-धक् कर रहा था , जैसे उसके भाग्य का निर्णय होने वाला हो | ह्रदय की दुर्बलता उस दशा में पहुँच गई थी, जब ज़रा सी सहानुभूति , ज़रा सी सहृदयता सैकड़ों धमनियों से कहीं कारगर हो जाती है | उसने एक लम्बी साँस के साथ चिंता का वह भीषण भार जो उसकी आत्मा को दबा रखा था ; वह सारी मनोव्यथा , जो उसका जीवन-रक्त चूस रहा था , छोड़कर बाहर निकलती हुई मन ही मन बोली ---तीनों लोक में कहीं ऐसी जगह नहीं ,नियति ने नहीं बनाई , जहाँ आदमी , सबसे छुपकर जी सके , अगर ऐसा होता ,तारा को लेकर मैं वहाँ जाकर शेष जीवन बिताती  | इस जगत से घृणा हो गई है |

दादी, एक मलमल के कपडे से लिपटा, बिरुवे को लेकर , मेरे सामने खड़ी हो, बोली--- इसे खोलो, यही है वह बिरुवा | मैंने पहले उस बिरुवे को अपने मस्तक से लगाया , चूमा और अपनी थरथराती उँगलियों से कपड़े की गाँठ खोली , तो देखा , वह बिरुवा बिल्कुल नया है | मैं उस बिरुवे को घंटों निहारती रही , अचानक मेरी नजर बिरुवे के किनारे से सटे एक तिनके पर पड़ी | मैंने उसे बड़ी ही सावधानी से निकालकर गौर से देखा , तो वह चावल का एक कण था , जो संभवत: पिताजी के अन्नप्राशन में खीर बना था | मैंने चिल्लाकर दादी से कहा----- दादी, दादी --- खीर | 

दादी अकचका उठी , बोली---- खीर, कहाँ है बेटी ? 

मैं उस कण को, दादी के तलहट पर रखकर बोली ----- दादी ! देखो, इस चावल को, यह उसी खीर का हिस्सा है , जो तुमने पापा के लिए 30 साल पहले बनाया था | दादी उन्मत्त की तरह चावल के कण को कुछ इस तरह देखी , मानो कोई अलौकिक शक्ति आ गई हो , उस चावल के दाने में , जो तीस साल से खुद में स्मृतियों के दूध संचित कर रखे हुए था ; वह पसीजकर निकलने लगा | यह देख दादी के आँखों के आगे अन्धेरा छा गया | सर चकराने लगा, हाथ- यंत्र की गति से बिना थके, बिना रुके, उसे कभी इस हाथ से, कभी दूसरे हाथ से छू-छूकर देखने लगी | यह करते , उसके वदन से बाढ़ सी पसीने निकलने लगी कि अचानक उसकी आँखों में निविड़ अन्धेरा छा गया | उसने खुद को संभालने की बहुत कोशिश की , लेकिन सब बेकार , उसके हाथ-पाँव ठंढे पड़ गए , हिलना-डुलना बंद हो गया | मैं चिल्लाई ---दादी, दादी , क्या हो गया ? दादी के मुख पर मृत्यु विभीषिका की छाप देखकर मेरे मुख पर पागलों जैसी अचेतना आ गई | मेरे  दोनों नेत्रों से आँसू बहकर गालों पर ढुलक रहे थे | मानो अपूर्ण इच्छा का अंतिम संदेश निर्दयी नियति को सुना रहे हों | जीवन का कितना वेदना -पूर्ण दृश्य था---- मेरे आँसू की वो दो बूँदें !  


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