माँ
माँ! आकर ले चल मुझको
इस दुनिया से दूर, दिवस के उस पार
जहाँ तू रहती, पिताश्री रहते
सुखमल रहता और रहता ऋतुराज
यहाँ जीवन-अरण्य में अकेली
चल-चलकर मेरे पाँव थक चुके हैं
जिंदगी, जीवन-रण से गई है हार
मृतकों के इस अभिशप्त महीतल पर
आदमी तो दीखता नहीं, दिखता
केवल, मानवता का कंकाल
जो अपने स्वार्थ वश धर्मवृति को
भंग कर , देता अन्यायी का साथ
आठों पहर, सागर जल उबलता
धरा पर रहती वारुणी बाढ़
तरुगण की डालियाँ पहले से
दिशाएँ अब इंगित नहीं करतीं
स्वच्छ शिलाएँ पंकिल करतीं
सरिता की अविरल धार
मिले जो आनंद हृदय को, अब
चलती नहीं वैसी कोई बयार
ऐसे में किसके गले लगकर रोऊँ मैं
सभी अपने ही गले के दर्द से हैं बेजार
ग्यान के मरु में चलता हुआ खोता
जा रहा आदमी, कम होती जा रही
हृदय-सर की शीतल वारि की धार
माँ अब तू ही बता मृत्ति न हो
जिस फूल के मूल में, वह कहाँ
करे निवास, सुमन कैसे खिले
जो न हो ऊपर सूरज का वास
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