( महर्षि मेंहीं दास परमहंस जी महाराज की सौवीं जयंती समारोह दिसम्बर 2019 के शुभ अवसर पर मेरे दो शब्द )
गुरु महिमा
---- डॉ. श्रीमती तारा सिंह
मानसानुरागी महानुभावों को, संत मेंहीं दास जी के बारे में परिचय देने की आवश्यकता नहीं होगी , कारण उनकी महत्ता से परिचित बच्चे, जवान, बूढ़े , हर कोई हैं | जो सर्व गुणों के स्वामी हैं , जिनके स्मरण मात्र से सब कार्य सिद्ध हो जाते हैं , जो खुद में बुद्धि की राशि और शुभ गुणों के धाम हैं , जो नर – रूप में हरि हैं, जिनके वचन महामोह रूपी घन अंधकार को नाश करने , सूर्य किरणों के समूह , उनका परिचय देने की धृष्टता भला मैं कैसे कर सकती हूँ ! मेरा तो ऐसे चलते-फिरते संत रूपी तीर्थराज के चरणों में कोटि-कोटि प्रणाम है, फिर इस सर्वगुण सागर के बारे में भी मेरी नीच बुद्धि चाहती है कि कुछ लिखूँ , जो भी मैं उनके बारे में जानती हूँ ,दुनिया को बताऊँ और उनके चरणों में लिखकर समर्पित करूँ | मैं मानती हूँ , यह कार्य बहुत कठिन है, परंतु इसमें , संत श्री मेंहीं दास से जुड़ा खजाना जो है , वह सोने, चाँदी , हीरा ,मोती से भी बढ़कर है | इसलिए , मेरा यह मानना है कि लोग इसे जरूर पसंद करेंगे |
आदिकाल से भारत भूमि साधू -संतों की पावन भूमि रही है | यहाँ व्यास , बाल्मीकि , शुकदेव , नारद , याज्ञवल्क्य , जनक, वशिष्ट , बुद्ध , महावीर , शंकर ,नानक, कबीर , तुलसी , विवेकानंद आदि जैसे महान ,विश्वविख्यात संत-मनीषी अवतरित हुए | इसी कड़ी में सन विक्रम संवत 1642 बैशाख शुक्ल-पक्ष की चतुर्थी को मझुवा नामक गाँव में अपने नाना के घर , सर पर सात जटाएँ लिये एक मैथिलि कर्ण कायस्थ कुल में एक संत जन्म लिया | साधू -संतों ने नाम रखा ,’ रामानुग्रह्लाल दास’ लेकिन बाद में इनके नाम को बदल दिया गया और आगे चलकर ये , मेंहीं लाल के नाम से ख्याति प्राप्त किये | मूल रूप से ये पुर्णियाँ जिला के वनमनखी थाणे के सिकलिगढ़ धरहरा नामक गाँव के निवासी थे | अपनी प्रारम्भिक शिक्षा गाँव के स्कूल से प्राप्त कर इन्होंने , ग्यारह वर्ष की अवस्था में पूर्णियां जिला स्कूल में अपना नाम आठवीं क्लास में लिखाया | वहाँ रहकर वे पढ़ाई के साथ-साथ रामचरित्र मानस , सुख सागर , महाभारत आदि ग्रंथों का अवलोकन करने लगे | शिव उनके इष्ट थे, इसलिए वे शिवभक्त भी थे | इसी दौरान उनकी मुलाक़ात , एक दरियापंथी साधु-संत , श्री रामानन्द जी से हुई | उनको उनसे नियमित शिक्षा -दीक्षा मिलने लगी | धीरे-धीरे योग साधना की ओर उनकी रूचि इतनी बढ़ गई कि पढ़ाई -लिखाई से अभिरूचि यहाँ तक समाप्त हो गई
,कि मैट्रिक परीक्षा की कॉपी पर रामचरित्र मानस की यह चौपाई लिखकर परीक्षा भवन से
निकल आये ----
देह धेर कर यहि फल पाई
भजिय राम सब काम बहाई ||
वे आजीवन ब्रह्मचारी रहकर ईश्वर भक्ति में अपना जीवन बिता दिये | गुरु रामानंद जी की कुटिया में रहकर निष्ठापूर्वक उनकी सेवा करने के बावजूद , वे खुद को अधूरा अनुभव करते थे | एक दिन वे अपने मन की शांति के लिए , भारत भ्रमण के लिए निकल पड़े | अनेकों तीर्थस्थान गए , लेकिन उनका चित्त शांत नहीं हुआ | अंत में एक दिन उनकी मुलाक़ात परम संत बाबादेवी साहब से हुई | उन्हीं से संत मत साधना सम्बंधी जानकारी उनको मिली ; निर्दिष्ट मार्ग दृष्टियोग की विधि उन्होंने वहीँ प्राप्त किया | संत मेंहीं लाल , देवी साहब को पाकर निहाल हो गए | बाबादेवी साहब ने बताया --- परिश्रमपूर्वक अपनी कमाई से जीवन-यापन करना संतों का प्रथम उद्देश्य होना अत्यंत आवश्यक है | अपने-अपने बुढापे की चिंता से मुक्त जीवन बिताने के लिए , चालीस वर्ष की अवस्था में ही इमानदारी का इतना धन संग्रह कर लो कि बुढापे में परिश्रम करने की आवश्यकता नहीं पड़े |
भजन करने के लिए घर का त्याग कर ; एकांत साधना करो, जिससे जीवन उद्देश्य पूरा हो सके | 1912 में बाबादेवी साहब ने उन्हें दश वर्षों तक दृष्टियोग का अभ्यास करने का आदेश दिया | उन्होंने कहा ---- जब पूरा हो जाए, तब शब्दयोग का प्रयास करना , संत मेंहीं लाल जी ने वैसा ही किया | 1933 -1934 में उन्होंने अठारह महीने तक बिहार राज्य के भागलपुर के कुप्पाघाट की गुफा में शब्दयोग की कठिन साधना की, फल:स्वरूप वे आत्म-साक्षात्कार में सफल हो गए | इसके बाद तो संत मन की भावना के प्रचार -प्रसार में वे जुट गए | वे अपने साहित्यिक रचनाओं और प्रवचनों द्वारा यह सिद्ध करने लगे कि सभी संतों का विचार मूलत: एक है , और सभी संत-मत वेद, उपनिषद , गीता, पुराण , रामायण पर आधारित है | धीरे-धीरे इनके विचार लोगों के बीच प्रसिद्धि पाने लगे और कुछ दिनों में ही इनके अनुयायी ,देश-विदेश में फ़ैल गए | प्रथम-प्रथम इस कार्य में इनको अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा | कहा तो यहाँ तक जाता है , कि छल से इन्हें विषपान भी कराया गया | इनके आश्रम में डाका दिलाया गया , लेकिन आकाश की तरह अडिग और धरती की भाँति क्षमाशील सद्गुरु मेंहीं परमहंस महाराज जी ज़रा भी विचलित नहीं हुए , बल्कि और ही दिल-प्राण से जुट गए |
अखिल भारतीय संतमत-सत्संग की ओर से प्रकाशित होने वाली मासिक पत्रिका “शांत संदेश” की गहराई से विवेचना कर ,उसमें संकलित ऋषि -मुनियों , साधु-संतों, महात्माओं , विद्वानों के लोकहितकारी वचनों को संग्रह कर , जन-जन तक पहुँचाने का काम
किया | ऐसे तो महर्षि मेंहीं द्वारा रचित 14 पुस्तकों का प्रकाशन है , जिन्हें अध्ययन करने पर आध्यात्म ज्ञान की सही जानकारी प्राप्त होती है | आज इनके लाखों अनुयायी , देश-विदेश में इनके बताये रास्ते पर चलकर अपना जीवन सफल कर रहे हैं | देश भर में लगभग इनके 500 आश्रम ,हजारों संन्यासी ,वैरागी जिनमें 900 आचार्य सेवा -भाव का लाभ उठा रहे हैं | कहते हैं, इनके प्रथम शिष्य परमहंस जी महाराज थे , जिनकी ख्याति जन-जन में प्रकाशमय है |
परमपूज्य अनंत श्री विभूषित जी, अपने आशीर्वाद वचन में ‘’ ऊँ “ क्या है , को अपने गहरे अध्ययन के बाद बताया, कि अध्वर्य नामक ऋत्विक प्रतिगर मंत्र का उच्चारण करता है | इस ‘ऊँ ‘ का उच्चारण बौद्ध धर्म और सिक्ख धर्म में भी होता है | गुरुनानकदेव जी महाराज ने औंकार को अपना मूलमंत्र बनाकर सबको शिक्षा-दीक्षा दी |
महर्षि मेंहीं परमहंस जी के शब्दों में ----- “ऊँ “ प्रभुनाम यहीं ; “ऊँ “ में तीन अक्षर ( अ ,उ , म हैं ) और इन्हीं तीनों से क्रमश: (रज ,सत ,तम ) तीनों गुणों की उत्पत्ति हुई है | अर्थात ब्रह्मा, विष्णु और शिव की त्रिमुर्ति का द्योतक शब्द है , “ऊँ“, जिसमें अ = विष्णु , उ = शिव और म = ब्रह्मा का संकेतक माना जाता है | अर्थात ओंकार की तीनों मात्राएँ ( अ, उ और म ) एक दूसरी से संयुक्त रहकर की गई है |
महर्षि संत मेंहीं कहते हैं ---- विवेकशील साधक केवल ओंकार रूप आलंबन के द्वारा ही उस परम ब्रह्म को पा लेता है, जो शांत जरा-राहित , मृत्यु-रहित , भय-रहित और सर्वश्रेष्ठ है | वे कहते हैं --- परमात्मा का सर्वोत्तम नाम “ओइम” को इसलिए माना गया है कि यह स्वर शुद्ध है | इसका उच्चारण करने के लिए दूर का सहारा नहीं लेना पड़ता है , यह स्वयंभू है | परमात्मा की तरह स्वाश्रयी है | इसलिए महामुनि पाणिनि ने केवल तीन शुद्ध स्वरों को लेकर पहला सूत्र बनाया , ‘ अ इ उ ण ‘ ; हम देखते हैं –‘अ’ सबका आदि है और ‘उ’ सबका अंतिम है , परमात्मा की सृष्टि का आदि भी है और सृष्टि के अंत में भी शेष वही है | इस आदि शब्द की चर्चा हम ईशाइयों के पवित्र धर्मग्रंथ बाइबिल में भी पाते हैं ----- In the beginning was the word and the word was God, अर्थात सृष्टि के आदि में शब्द था, शब्द ईश्वर के साथ था, और यह शब्द ही ईश्वर था |
भगवान श्रीकृष्ण ने भी श्रीमद्भगवद्गीता में कहा है --------
सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च |
मूर्ध्याधायात्मन: प्राणमास्थितो योगधारणाम||
ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन |
य: प्रयति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम ||
अर्थात् इन्द्रियों के सभी द्वारों को रोक कर ,मनको ह्रदय में निग्रह कर , मस्तक में प्राण को
धारण करके समाधि होकर “ऊँ “ जैसे एकाक्षर ब्रह्म का जो उपासना करता हुआ स्वर्ग को प्राप्त करता है , वह परम गति को पाता है |
गुरुनानकदेव जी कहते हैं ----- ओंकार , निर्मल और सत शब्द है | ओंकार ही प्रकाश है , जिससे धरती और आकाश बना |
संत तुलसीदास जी के कथनानुसार , “ऊँ “ शब्द और निर्गुण ‘रामनाम’ ---- ये अभय द्वय नहीं , बल्कि अद्वय हैं |
स्वामी विवेकानंद जी के अनुसार , “ऊँ “ एक पवित्र शब्द है औए इसी “ऊँ” से जगत की रचना हुई है | गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं ---- ‘ मैं अक्षरों में आकार हूँ , इसलिए ओंकार ईश्वर का प्रकृत वाचक है | इस तरह हम देखते हैं , लगभग सभी संत-मुनियों ने सृष्टि के आरम्भ में शब्द का होना एक स्वर में स्वीकार किया है |
मैं ऐसे ज्ञानमय गुरु महाराज जी के चरण कमलों की वंदना करती हूँ , जिनकी वाणी इतनी सुंदर, सुरुचि और समग्र है , जिसका आत्मसात कर अपने बुरे कर्म को त्यागकर दुराचारी भी भगवान को पा सकता है |
संत मेंहीं जी महाराज , अध्यात्म के अमर गायक हैं | वे अक्षर तत्व के उपासक हैं , शब्द ब्रह्म के ज्ञाता हैं | गुरु महाराज जी, अमृतत्व का उपदेश देने आये थे | वे अमर लोक के संदेश वाहक हैं | उनका उपदेश असत से सत की ओर , मृत्यु से अमृत की ओर ले जाने वाला है |
संत मेंहीं जी महाराज जब उदित हुए , उस समय कई प्रकार के सम्प्रदाय या पंथ चल रहे थे | भिन्न-भिन्न शाखाओं के साधू-वैरागी अपने-अपने सिद्धांत का प्रचार कर रहे थे | लेकिन इस धरती का जनमानस ,इनका उपदेश पाकर धन्य हो गया | ऐसे भी उन्होंने, उपदेशों की भाषा बड़ी ही सरल भाषा में लिखी | ऐसी भाषा वही लिख सकता है, जिसका मन पूरा निर्मल हो गया हो | कबीर की तरह वे भी किसी पर कटूक्ति या व्यंग्य नहीं करते थे | उन्हें तो अपनी भक्ति को अभिव्यक्त करने की चिंता रहती थी |
मैं उनकी तुलना ऋषि तुल्य कवियों से न कर, मानवीय संवेदना और भावनाओं के ऐहिक संत मानती हूँ | उनकी कल्पना की सूक्ष्मता को, भावनाओं की तरलता को अनुभव करने के बाद एक विशिष्ट आध्यात्मिक भक्ति-भागिरथी के भगीरथ मानती हूँ |
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