महासेतु है नारी
कहते हैं, जब से यह दुनिया बनी
तब से सुरभि संचय कोश सा
तीनो कालों को खुद में समेटे
प्रेरणा, प्रीति ओ करुणा की अदृश्य
उद्गम-स्थली कही जानेवाली नारी
कवि के तमसा वन के कूलों में
वनफ़ूलों में,नभ-दीपों में हँसती आई
मगर नर स्वेच्छा तम को भेदकर
शरद की धवल ज्योत्सना सी
धरा मंच पर कभी निखर न पाई
शीतल मस्तक, सिर नीचा कर, समग्र--
जीवन, विश्वनद में सुंदर, सरस हिलोर
उठाने कोकनद की धारा- सी बहती रही
जमीं हिली,पहाड़ हिला,मगर यह ध्रुव मूर्ति
जग कोलाहल के बीच रहकर भी
मूकता की अकम्प रेखा सी स्थिर रही
जब देखा धूसर संध्या को
क्षितिज से उतर
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