Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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महोदधि लहराता था जहाँ

 


महोदधि लहराता था जहाँ , वहाँ पयोदधि दौड़ पड़ा



कौन सुरभि दिव्य बेली की, मेरे प्राणों में गमक गई 

जिसे छूने, मेरे मनोदेश की वायु व्याकुल हो उठी 

बहुत समेटा, मगर मन केंद्र-मग्न हो न सका 

ह्रदय को फोड़कर , रक्त की धारा बन बाहर निकल पड़ा 


अकस्मात कौन सा संचित पुण्य मेरा उदित हुआ 

जो मेरे जीवन के बिखरे सुख-कण को इकट्ठा कर

अंधकार का जलधि लाँघकर, शशि किरणें बन 

इस भूतल पर मुझे लौटाने आया 


अब तक कहाँ छुपा था मेरे जीवन का यह मधुवन 

किस अतीत के स्वप्न में, करता रहा पदाचार

चेतना के समुद्र में जीवन बिखरा पड़ा हुआ था 

कुछ तो आभास दिलाता, निर्मित कर अपना आकार 


प्रेम जीवन वसंत का चिर उद्गम कहलाता 

सोचकर उसके शीतल जल समान,अधर पात्र को

जैसे ही अपने उर से लगाया,चिर अतृप्त महोदधि 

लहराता था जहाँ , वहाँ पयोदधि दौड़ पड़ा 


आरती की इस महाज्योति को भुज में समेटे 

मैं एकांत मन,विह्वल उसे निहारता रहा 

सोचता रहा, क्या यही है वह दिव्य सुरभि 

जो मेरे अंगों की विभा की वीचियों से होकर

मेरे ह्रदय में समाकर, मेरी सुध-बुध लूट ले गयी 


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