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मैं अमरलोक का यात्री

 

मैं अमरलोक का यात्री

                          ----- डा० श्रीमती तारा सिंह, नवी मुम्बई



मैं     अमरलोक     का    यात्री

साथ  न  संगी,  न  कोई  सहयात्री

अपने  जीवन  के  अनंत  पथ  पर

अंधशक्ति  की कारा से मुक्त होकर

अकेला  ही आया था यहाँ, सोचा था

दुख  के  खर  से चुन ,सुख के तृण

अपना एक नीड़ बनाऊँगा,जहाँ बैठकर

यौवन   के   मदिरा – रस  को  पी

सुख   को   और   विस्तृत  करूँगा


भोगूँगा  यातना कठिन, सुखभार उठाऊँगा

कैसे मूर्त्त होती धरा-रज में सुषमा,देखूँगा

खुलती पंखुड़ियों के कंचुक,सौरभ साँसों से

होता  कैसे  स्पंदित, कैसे चांदनी सी देह

बाँहों  में  समेटे ,प्राणों  से प्राण,हृदय से

हृदय  लिपटकर, आनंद  रस  को भोगते

गरजते   सागर   का   श्वेत  कोलाहल

अगम  शांतिं  में  लीन होता कैसे,देखूँगा

                     


रक्त  पद्म  पात्र  में  यौवन का

भार  लिये  मनुज चलता  कैसे

शिखरों का मुकुट बन,शुभ्र रश्मि

नये  प्रभात  में  दमकती, कैसी 

निर्मल   सरि   के   झिलमिल 

हिलकोरों  में  नभ  डोलता कैसे

उन्मादों में छिपा है, कौन आनंद

ढूँढूंगा और जग को भी बताऊँगा


मगर  यहाँ  आकर देखा,विधुरा फ़ाल्गुन के

संध्या  वन  में इठलाती ,मदिर बनैली की

मधुर  भीनी ,आदमी  के  नासा से घुसकर

प्राणों  के  सुख  को,  मूर्च्छित  कर  रहा

जगजीवन   का  स्वर्ण  किरण, नभ  की

निस्सीमता  के अंधकार  में कहीं खो गया

मनुज   निज  जीवन   की   चिता  को

अपने  प्राणों  की  ज्वाला  से  सुलगाकर

जग  तिमिर  वन  को  कर  रहा उजाला

ऐसे  में  जब  देख  न  सका जीवन का

प्रथम चित्र,अंतिम चित्र को क्या पहचानूँगा

अकेला आया था यहाँ,अकेला चला जाऊँगा

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