मैं जीर्ण तन, विकल वक्ष संस्कृति हूँ
कौन है यह नारी, मानवता की देवी सी दीखनेवाली
जीवन श्रांत पथिक - सी , धरती रज में लिपटी हुई
झुर्रियाँ भरा तन लिए , जगती से विरत मन लिए
सीढ़ी - सीढ़ी उतरकर , मंदिर के प्रांगण में आकर
चिर निद्रा में जाने का प्रयत्न कर रही
श्लथ नथुनों से निकल रही साँसें अभी भी
लगता ,प्राणों के भीतर जीने की लालसा है अब भी
इसलिए जाग रही सुप्त प्रेरणा उसकी आँखों में
जटिल शिरा-तंत्रों में शत विद्युत सी लहू बह रही
लौह संगठित लोक बने भारत का जीवन
अधिकारों की मदिरा से युक्त रहे युग का नयन
मेरी स्मृति शेष को मिट्टी में मिलने से बचा लो
संदेह दग्ध,उदभ्रांत चित्त मनुज,रक्तसिक्त हस्त लिए
मुझको ढूँढ रहे रौंदने अपने पैरों तले , नव
मानवता को करने वितरित,मुक्त काल बन घूम रहे
मैं जीर्ण तन विकल वक्ष , अनंत की छाया -सी
फैली , अपरूप भारत की संस्कृति हूँ
मैं युग -युग के विच्छिन्न चेतना प्रकाश को
नव मानव के बीच सूत्रों को बांधती हूँ
जिससे मनुष्यत्व की लता हँसती रहे धरा पर
मनुज का जीवन स्वर्णिम पावक से दीपित रहे
यह मर्त्यलोक ही स्वर्ग है, मनुज को समझाती हूँ
आज अंधतमस मनुज को अपनी ओर खीच रहा
आदर्शों के विचुंबी शिखर टूटकर , भू- लुंठित हो रहे
प्रलोभन स्नेह बनकर , मनुज हृदय में ढल रहा
जिससे मानव के अंतर का जग,खोखला होता जा रहा
असंख्य भुजाओं वाली असभ्यता,अनेक पैरों पर खडी हो रही
दैन्य , दुख , अमंगल उर की शोभा बनती जा रही
मानव का मिलन - तीर्थ कहलाने वाला यह लोक
संस्कृति विहीन हिंसक , द्रोही होता जा रहा
संस्कृत हो सब जन , स्नेही हो , सुहृदय हो
सुंदर हो ,यही मेरी कामना है ,यही है मेरा उद्देश्य
जब तक मेरे लिए मनुज हृदय में है जरा भी प्रेम शेष
तब तक मेरी भी सुधा बूँद है अशेष , संस्कृति
है सभ्यता का उदगम, सभ्यता संस्कृति का वेष
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