मैं रोई, तो जग हँसा
अचानक पछवाँ हवा ने आकर फ़ूलों से लदी डालियों को झकझोड़ कर धरती पर गिरा दिया, जिससे उसका संचित धन तितर-वितर हो गया । दूर खड़ी रमला, संध्या के धुँधलके प्रकाश में यह सब देखकर काँप गई । उसे अपनी जीवन-डाली से बिछड़े फ़ूलों की याद ताजी हो गई, जिससे अलग हुए उसे पन्द्रह साल हो चले थे । वह अपनी कोठरी में बैठकर विचारने लगी---’कैसे मेरे जीवन भर का संचित धन ,एक दिन में खतम हो गया ।’ सोचकर उसका आत्माभिमान झनझना उठा, हृदय-तंत्री के तार कड़े होकर चढ़ गये । वह खुद को संभाल न सकी , और तकिये में मुँह छुपाकर, अबोध बालक की तरह फ़फ़क-फ़फ़ककर रोने लगी ।
बगल के कमरे में सो रहे रमला के पति अमर, रमला की करुण-वेदना की तान सुनकर जाग बैठे और विचारने लगे--- ’पौष महीने की ठिठुरती इस अंधेरी रात में, जहाँ नियति तुफ़ान बन इतनी वेग गति से चल रही है, मेघों की कड़कड़ाहट से लगता है , अंतरिक्ष घायल हो गया है । वह धरती पर गिर आने को व्याकुल हो रही है, ऐसे में इतने कोलाहलों को पार कर यह करुण –वेदना की तान कहाँ से आ रही है , जिसे सुनकर मेरा कलेजा फ़टा जा रहा है । कुछ देर काठ की तरह वह बैठा रहा, फ़िर हृदय के समस्त बल को इकट्ठा कर उठा और रमला के कमरे में आया , शायद यह बताने कि रमला,’ मैं जो सुन रहा हूँ ,क्या उसे तुम भी सुन रही हो ।’ मगर वहाँ जाकर उसने जो कुछ देखा, देखकर उसके पाँव वहीं जम गये । वह आगे बढ़ न सका, दरवाजे के पास से ही आद्र स्वर में रमला को पुकारा , पूछा --- ’ रमला तुम, रो रही हो ? क्यों, क्या हुआ , तुमको ?’ रमला पति का सान्निध्य पाकर बिफ़र उठी, और जोर-जोर से रोने लगी । अमर, रमला के रोने का कारण जानते हुए भी, वह अपनी स्मृतिधारा पर विश्वास नहीं करना चाह रहा था । उसने एक शिशु की तरह रमला को अपनी गोद में उठा लिया और कहा --- ’ रमला, तुम्हारे संयम के बज्र गंभीर नाद का कारण क्या है ? क्यों तुम्हारा मन-संयम आज फ़िर एक बार, महानदी की प्रखर धारा की तरह टूटकर बहा जा रहा है ?’
रमला, पति की बात का कोई उत्तर न देकर केवल दूर खिड़की से आ रही रंग-बिरंगी रोशनी को देखती रही, जैसे उस रोशनी के धागों से उसका जीवन-डोर बंधा हो । वह नहीं चाहती थी कि उसकी नजर पल भर भी वहाँ से हटे । रमला को इस कदर पत्थर की मूरत बना देख, अमर की साँसें भारी हो गईं । उसने आद्र स्वर में कहा ----’ छोड़ो उधर देखना, बड़ी ठंढ़ी हवा आ रही है, खिड़की बंद कर देता हूँ , इतना कहने की देर थी,कि रमला घायल शेरनी की तरह तड़पकर गोद से उठ खड़ी हो गई, और सजल आँखों से कही ---’ अमर , कोई हो न हो, लेकिन तुम तो उस सत्य का गवाह हो ।’ अमर ने विस्मय के साथ पूछा ---’ कौन सा सत्य, तुम किस सत्य की बात कर रही हो ?’
रमला----’ रोशनी आ रही खिड़की की तरफ़ दिखाती हुई बोली --- ’ यही कि वह मेरे बेटे का घर है, कभी मैं वहाँ रहा करती थी, और फ़िर बिफ़रती हुई बोली--- ’जिस खिड़की से रोशनी आ रही है, उसी कमरे में हम दोनो, मिलकर हमेशा बेटे का जनम-दिन मनाया करते थे ।’
अमर, आँख का आँसू पोछते हुए कहा---’ हाँ, लेकिन आज यह सब तुम क्यों पूछ रही हो ?’
रमला, हकलाती हुई बोली---’ आज रमेश का जनम दिन है, देखो, कितना सजाया है, कमरे को ? ’ फ़िर थोड़ी देर चुप रही; अचानक बोल उठी --- ’ लेकिन लाल लाइट उसने क्यों नहीं लगाया,लाल हमेशा शुभ होता है ।’
अमर----- ’रमला के दर्द को समझ पा रहा था, इसलिए उससे हाथ जोड़कर , विनती कर कहा--- ’ रमला. भूल जाओ उसे, जो चीज तुम्हारी होकर , तुम्हारे हिस्से नहीं आई। दुनिया में हर किसी को पसंद की हर चीज नहीं मिल जाती, और जो चीज नहीं मिली, उसका गम क्या मनाना ? इसे अपने भाग्य का दोष समझो और भूल जाओ । इस कदर चिंता की गहरी खाई में डूबे रहने से क्या फ़ायदा ? तुमने उसे पाने के लिये क्या कुछ नहीं किया ? अपने हक की हिफ़ाजत के लिए , अपनी हर खुशी की कुर्बानी दी । उसकी एक खुशी पर अपना सर्वस्व लुटाने तैयार रही ।’ फ़िर आहत होकर बोला --- ’ बावजूद तुम उस कठोर सत्य की ज्वाला में क्यों जलना चाहती हो ? तुम्हारे अंक में जो ममता की शीतलता अनुभूत हो रही है, उसे असत्य या कल्पना कहकर उड़ा क्यों नहीं देती ? ऐसे भी तो लोग जीवन की अलभ्य अभिलाषा से वंचित होने पर , रिक्त हो जाते हैं, तुम क्यों नहीं हो जाती ?’
रमला विस्मय से अमर की ओर देखती हुई बोली----’ कैसी बातें कर रहे हो तुम ? अपनी आँखें दुखती हैं तो उन्हें फ़ोड़ नहीं दी जातीं ।’
अमर अपने होठों पर व्यंग्यात्मक मुस्कान लाते हुए बोला ----’ तो दुख सहती रहो, रोती क्यों हो ?’
फ़िर अमर ने व्यथित हृदय से कहा----’ क्या तुम्हें याद नहीं, जब वह तुम्हारे कोख से धरती पर उतरा था, तब वह कितना रो रहा था ? तब तुम उसे देखकर हँस रही थी । तुम्हारी खुशियाँ अंकुरित , पल्लवित होकर तुम्हारी छाती से दूध बन निकल रही थीं । आज तुम रो रही हो, और वह हँस रहा है । अच्छा होगा कि इसे तुम बदला मान लो, देखना तब तुमको कोई कष्ट नहीं होगा ।’
रमला,पति की बातों में, हाँ में हाँ मिलाती हुई, अपना सिर हिला दी ।
नौकर, हमारी तरफ़ मुस्कुराता हुआ देखा और बोला –’ तभी इतनी तकलीफ़ आपलोगों को हो रही है ।’
मेरे पति,नौकर की बेतुकी बा्तें सुनकर उत्तेजित हो उठे, और विस्मित होकर बोले --- ’इसकी आहें आसमान तक पहुँच रही हैं : ये आहें एक दिन
किसी ज्वालामुखी की तरह फ़टकर हमें निगल जायगीं । देखना, एक दिन आयगा, जिस फ़ूल को देवताओं के गले में माला बनाकर डालने के लिए आज तुम पानी सहेजकर रखे हो, कल कंकर—पत्थर की तरह उठा-उठाकर गलियों में फ़ेंक दिये जायेंगे , उन्हें पैरों से ठुकरायेंगे । गाय हमारी देवता है; वह भी जीवित, तुमने साक्षात जीवित देवता पर अत्याचार किया है ।’
नौकर, मेरे मेरे पति की बात पर तिलमिला उठा । उसने कहा---’ ठीक है , आप यहाँ मुम्बई से पुण्य कमाने आये हैं, तो पुण्य कमाइये न , बेकार का झंझट क्यों मोल ले रहे हैं ?’
तभी मेरे पति की नजर ,उसकी दुकान में सजे , वाटर-बोतलों पर पड़ी । उन्होंने नौकर से पूछा---’ क्या ये पानी –बोतल बेचने रक्खे हो ?’
नौकर सहज भाव से उत्तर देते हुए कहा-- ’हाँ, खरीदनी है आपको, कितनी बोतलें चाहिये ।’
मेरे पति ने कहा ---’सब के सब !”
नौकर धन्यवाद देते हुए कहा ---’ और चाहिये, तो कहिए ,बगल की दुकान से मंगवा दूँगा ।’
मेरे पति तीक्ष्ण स्वर में बोले—’ देखता हूँ, वह पीती कितना है ?’
उसके बाद नौकर ,बोतल का सील तोड़ता गया , और मेरे पति गाय को पानी पिलाते गये । लगभग बीस बोतल पानी पिलाने के बाद ,एक बार उसने आँखें खोलीं, फ़िर सदा के लिए मूंद लीं । यह देखकर,मेरे पति के सिर से पाँव तक स्वाभिमान की एक बिजली दौड़ गई और उनकी आँखों से भक्ति के आँसू छलक पड़े ।
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