Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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मैं थी , संग तुम्हारी यादों का कारवां था

 


मैं थी , संग तुम्हारी यादों का कारवां था
और दूर तक फ़ैला हुआ गर्दिशे आसमां था

कौमों की झूठी जिंदगी थी,अश्कों की कहकशां थी
वहशत की परछाईं थी, जर्रा –जर्रा हैरां परेशां था

हरी डालियों को झकझोरती हुई सर्द हवाएँ थीं
दीवानों के लिए मजाके –इश्क, गमे सदमा था

तुमसे मिलती कोई सूरत तो नहीं थी, फ़िर भी
मेरा इश्क जाने क्यों , नादिम – नाजाँ था

बावजूद जमाना मुझे फ़कीर कहता,जब कि पत्ता–पत्ता
जानता मेरे पास, अपने दर्द का सलतनते जहाँ था

छोड़ खुदा का , सहारा साथ मेरे और कोई नहीं था
एक इश्क था, वह भी बदगुमां था




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