माँ
नारी के लिए, माँ शब्द बड़ा ही अनूठा है ; अनूठा हो भी क्यों नहीं,नारी,प्रकृति जो कही गई है । कहते हैं , नारी स्वर्ग और धरती के बीच वह महासेतु है,
जिस पर होकर आदमी उस अदृश्य लोक से दुनिया में आता है ।
संतान सुख के लिए गरल पीने वाली, तथा प्रसव वेदना सहनेवाली माँ जब अपने संतान के दुख से दुखी होकर चीखती है, तो उसके पुकार पर व्योम का हृदय दरक जाता है, सूरज सहम उठता है । जब वह जानती है कि वह माँ बनने वाली है, तब उस आगत के कल्पना - सुख में उसकी जागृति और स्वप्न की
दूरी मिट जाती है । अपना सुख तृणवत नगण्य लगने लगता है । वह अपने गर्भ में पलने वाले संतान के लिए कल्पना शृंग पर चढ़कर कहती है ---हे देव ! मैंने कभी सुरम्य उत्तुंग स्वप्न को नहीं छुआ । मैं चाहती हूँ ,सूर्य की किरणों को समेटकर विधु की कोमल रश्मि-तारकों की पवित्र आभा को पी लूँ, जिससे अपरूप अमर ज्योतियाँ मेरे गर्भ में पल रहे संतान के शोणित में,हृदय प्राणों में समा जाय । त्रिलोक में जो शुभ,सुंदर है; सब एक साथ मेरे आँचल में बरस जाये, जिसे मैं समेटकर अपने आने वाले संतान के अधरों में जड़ दूँ ।
मातृपद को पाकर भी एक माँ कितना क्लेश सहती है ; संतान की देखभाल करते-करते तन शिथिल हो जाता है, यौवन गल जाता है, ममता के रस में प्राणों का वेग पिघल जाता है । बावजूद प्राणों में इन्द्रधनुषी उमंग कम नहीं होता है ; आँखों से सोई, स्वप्न कुंजों में जगी रहती है; माँ न तो गरीब होती है, न ही अमीर ; न ही सवर्ण और अछूत होती है । माँ की कोई जाति नहीं होती
,माँ के आँचल में स्वर्ग की हवा खेलती है । माँ के कदमों को चूमना, मंदिर के चौकठ को चूमने समान है । दुनिया में वह बड़ा तकदीर वाला है, जिसे माँ की खिदमत का मौका मिला । माँ जब बूढ़ी हो जाती है, तब भी उसकी डूबती आँखों में संतान के लिए ममता का सागर उमड़ता रहता है । औलाद की हर गलती को माफ़ करने वाली माँ ,कभी अपने संतान के साथ सौतेला व्यवहार नहीं कर सकती ; संतान भले सौतेला हो जाय । माँ के बारे में लगभग सभी धर्मों में एक विचार है; माँ का स्थान पिता से ऊँचा है ।
कहते हैं, हुजूर नबी अकरम ने एक बार देखा कि एक महिला बिल्कुल बदहवास रोती,विलखती दौड़ी भागी जा रही है, उसे अपने सर के दुपट्टे तक का होश नहीं है । हुजूर नबी अकरम ने सहाबा किरान से पूछा,” यह औरत इतनी परेशान क्यों Submit Comment