मानवता के विप्र
नेताजी! तुम्हारी उललसिंत आँखों को
दिख रहा जो झूलता हुआ कुसुमित स्वर्ग
वह स्वर्ग नहीं है, जनता की आशा है
कराह रही भारत माँ की अभिलाषा है
और है, महासुख के तप का उत्सर्ग
विदा हो गए जो, असमय ही दुनिया से
छोड़ गए सदा के लिए हम सब का साथ
उनके बूढ़े पिता की भग्न आर्त पुकार है
मातृ सुख की वेदना है, वैधव्य का चित्कार है
देखा न कभी जो सिवा किस्मत का रोना
उस अनाथ का दुख आँसुओं का ढार है
और है जो मनुज के पाँव तले
मर्दित होते देख मनुज का मान
आदमी के लहू से आदमी का स्नान
महल त्याग, दुग्ध फेन शैय्या को छोड़
तृणाहार वन-वन भटकते रहे, जुड़ा न पाये
एक पल भी सुधा, वृष्टि के बीच, अपना प्राण
मिटे व्यथा तिमिर वन की
जनगण का हो कल्याण
कुसुमाकार के कानन की
अरुण पराग पटल छाया में
सरिता तट का हो क्षितिज प्राण
शून्य प्रांत के रज कण से माँग, मेरे
दुर्बल प्राणों के रंध्रों में, जहाँ-जहाँ भी भरा हुआ है
नैराश्य तिमिर का घन अंधकार
हटाकर उसे भर दो उसमें, श्रद्धा-भक्ति की नवज्योति
जिससे सुशीतलकारी शशि से, सुधा की बूँद माँगकर
दहक रही क्षुधागिन में भारत माँ के प्राणों को
माणिक सरोवर का अमृत जल पिलाकर दिला सकूँ त्राण
नेताजी छोड़ भ्रांति, बल के सम्मुख
विनत भेड़ सा अम्बर शीश झुकाता है
अरे! सभ्यता के प्रांगण में गरल बरसाने वाले
दीन, दुखी असहाय पर अत्याचार क्यों करता है
अमृत को खुद पान कर, पात्र जनता के आगे लुढ़काता है
यह तुम नहीं, तुम्हारा अहं कराता है
ओ मखमल भोगियो, रक्त-मांस से बने दुराचारी देवता
श्रवण खोलो, सुनो विकल ये नाद कहाँ से आता है
कौन दूर के गली-कूचों में चिल्लाता है
किसकी लुटी जा रही इज्जत, कौन जलाहार सोता है
मत भूल वाणी विहीन की व्यथा को
विप्लवी का जब खुलता नहीं कंठ, तब
क्रोध से मुद्रित कपाट को तोड़ डालता है
यह अम्बर तल के फूलों की झंकार नहीं है
यह बादल में छिपी शम्पाओं की कड़क है
जो अपनी पीड़ा, जग को बता न सकी
अब उसका दर्द, बाहर निकलने अकुलता है
इसलिए हे मनुज विप्र, मानवता के निर्मम शिक्षक
चिर अन्यायी, क्रूर प्रहही बन, जनता को दुधमुँही जान
मत सौंप उसे, कल्पना के खिलौने का कोई सामान
अन्यथा जनता को कर शोषण से निखर रही जो तुम्हारे
अंगों की मांसल शोभा, वह घर अंधकार की छाया बन
तुमको निगल जाएगा, चलेगी न वहाँ तुम्हारी कोई आन
Powered by Froala Editor
LEAVE A REPLY