Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
Administrator

मनुज देह अवतरित हुये श्रीराम

 

मनुज देह अवतरित हुये श्रीराम


जब- जब  धरती के अंतर को, क्षत- विक्षत करने

विवर्तन  की  आँधी  में, नाश  का  अंधेरा  छाया

तब- तब  जगती तल में, सो रही शांत सरोवर को

अपनी  साँसों से  तरंगित कर, कमल दल बनकर

अंगों में रूप को भरकर,धर्म भक्ति का निर्वाह करने 

मनुज  देह  लेकर  राम  धरा  पर अवतरित हुये

धूल  - धुँध    से   चुनकर, अग्नि   बीज  पर

अपने   भावों   का   शत    प्रकाश   बरसाकर

रूप ,रस ,गँध  से  झंकृत किया  धरती की काया


कहा, मानव !  तुम शत  हस्त  करो  वैभव एकत्रित

मगर  सहस्त्रहोकर करो, फ़िर  उनमें वितरित

जिसके जीवनमें आता मौन भरा  प्रभात

संध्या रहती उदास भरी,जो युग-युग से हैं अभिशापित

जो  अन्न- वस्त्र को  तरस  रहे,जो पंक में हैं पलित

जिसके  जीवन  का उल्लास, काँटों में है बिखरा हुआ

जो  दैन्य ,अभाव के ज्वरसे   हैं    पीड़ित


हम  मनुज हैं, हमें  रखना होगा  यह ध्यान

मनुज संस्कृति  बनी रहे  अभिमान

माता -पिता,  गुरुजन-स्वजन को  वेदी मान

निज को करते चलो बलिदान,जिससे निष्ठुरता 

के अँचल  में कभी  मुरझ न सके मनुज की 

छवि  सुकुमार ,मधु  दिन की  लहर  समान

तुहिन  के  पुलिनों  पर, मनुज रहे छविमान





ज्यों प्रकृति  नित  नर्तन  में गल -गलकर

कांति,   सिंधु में घुल  -  मिलकर 

अपने  स्वरूप  धरती  को  बनाती  सुंदर

त्यों निज मन के कटु संघर्षण को भुलाकर

फूलों  से  उड़ रहे, अदृश्य  रंगों को लेकर

रँगना  होगा  मनुज  प्राण  का, उर अंतर

तभी बँधेगा धर्म, रीति-नीति जीवन के संग

गिरि कुंजों में ,सरित् तटों में, खिला रहेगा

मुख खोलकर , मौनमुकुल गोपन


मनुज जनम का ध्येय,धन नहीं,कृति नहीं

सत्ता किरीट  मणिमय  आसन नहीं

मनुज  तो वह है, जो चीर कलेजा अपना

औरों  के सुख  खातिरलहू बहाता 

छोड़  सुमनों  का  सेज, काँटों  पर सोता 

मनुजता  की  बेलि को, प्रेम रस से सींच-

सींचकर जगत  हितपनपाये  रखता 

Powered by Froala Editor

LEAVE A REPLY
हर उत्सव के अवसर पर उपयुक्त रचनाएँ