मर्णोत्सव
ज्येष्ठकीझुलसातीगर्मी औरशिशिरकीहाड़कँपा देने वाली रात में जब विश्व की वेदना, जगत की थकावट, क्षितिज के नीरव प्रांत में सोने चली जाती, धर्मा तब भी मरण शय्या पर दवा विहीन पड़ी अपनी जीर्ण –कंकाल बीमार माँ के सिरहाने में सूखे काठ सा बैठा, आँसू बहाता रहता । कई बार मन में आया , जीवन भर की संचित ईमानदारी के इस अभिमान –धन को माँ की दवा के लिए बेच देना अच्छा होगा । मगर दूसरे ही पल बीमार माँ की बंद आँखें उसे रोक लेतीं और उसका आत्माभिमान झनझना उठता, तब वह वहीं बैठा-बैठा ऊपरवाले से कहता ---- हे अनंत ज्वाला के सॄष्टिकर्ता तुम किस तरह के करुणानिधान हो ? मेरी माँ पैसे के अभाव में एक पुड़िया दवा के लिए तड़प-तड़पकर क्षण-क्षण मिटती जा रही है , और तुम दीनानाथ कहलाते हो। तुमने निष्ठुर दुखों को सहने के लिए मानव हृदय सा कोमल पदार्थ क्यों चुना ? तुम्हारे दिल में जरा भी दया की जगह है, तो मेरी माँ को फ़िर से पहले की तरह स्वस्थ कर दो । मेरी आँखें उसकी दयनीय हालत को और देख नहीं सकतीं ।
रोज की तरह उस दिन भी सुबह उठकर धर्मा नहा-धोकर ठाकुरवाड़ी से तुलसी-दल लाने जा रहा था, तभी रास्ते में जुम्मन चाचा मिल गये । उसने धर्मा से माँ का हाल-चाल पूछा और अफ़सोस व्यक्त करते हुए कहा--- अरे ! तुम्हारी माँ अब बूढ़ी हो चुकी है बेटा, उसे चले जाने दो । बेकार में तुम वैद्य-हकीम के पीछे दौड़ते-फ़िरते हो । आगे और कुछ बोलते, तभी बगल के रामटहल चाचा मिल गये । वे अपने मुँह में पान की गिलौरी डालते हुए बोले ---- बेटा ! जुम्मन ठीक ही कहता है, अब दवा-दारू छोड़ो और हमलोगों के भोज का इंतजाम हो जाने दो । कब से हमलोग आश लगाये बैठे हैं । पता नहीं बुढ़िया किसकी उमर लेकर जी रही है, तभी जुम्मन, तपाक से बोल उठा --- और किसकी, धर्मा की ; देखते नहीं बेचारा सेवा करते-करते आधा हो चुका है । मुझे तो लगता है, कहीं बुढ़िया के पहले धर्मा ही न चला जाय ।
धर्मा दोनों की बात काटते हुए कहा--- चाचा ! मैं ठाकुरवाड़ी से तुलसी-दल लाने जा रहा हूँ , माँ को पीसकर पिलाना है और वह चलता बना ।
रामटहल चाचा ने नाक सिकोड़कर कहा--- तुलसी-दल पीसकर पिलाओ या गंगाजल, अब कोई फ़ायदा नहीं, ऐसे तुम्हारी मर्जी ।
रामटहल की बातें सुनकर धर्मा ऐसे ठिठककर खड़ा हो गया, मानो उसके कलेजे को किसी ने बेंध दिया हो । उसने ऊपर मुँह उठाकर दीन स्वर में कहा---- वाह रे ऊपरवाला ! तुमने क्या खूब संसार बनाया, जिंदगी दिया , भूख दिया, मगर जिंदा रहने के लिए रोटी नहीं दे सका । सच और ईमानदारी को व्रत मानकर अपना जीवन निभानेवाला धर्मा, जीवन का मूल सत्य है , इससे विचलित होने लगा । इस आपातकाल में कितने ही अवसर आये, जब उसे अपना जीवन भी भार सा मालूम होने लगा । गाँव का कोई आदमी एक बार भी भूले से उसकी माँ की बीमारी पर अफ़सोस व्यक्त करता तो उसके वदन में स्फ़ूर्ति आ जाती । उसकी जीवन व्यथा जाने कहाँ छिप जाती, मगर दूसरे ही पल फ़िर वही बचैनी, उसे परेशान करने लगी ।
माघ की रात , कड़ाके की सर्दी , आकाश पर धुआँ छाया हुआ था । ढ़िबरी की बाती को ऊँचाकर धर्मा, माँ का माथा छूआ, देखा --- माँSubmit Comment