मासी
दूर के रिश्ते में मेरे एक मामा हुआ करते थे, नाम था रामलाल । जहाँ तक मुझे याद है, वे किसी कॉलेज में व्याखाता थे । वे जब भी हमारे घर आते थे, किसी न किसी टॉपिक की व्याख्या कर , उससे सम्बंधित बातों को विस्तार में समझाया करते थे । एक बार मासी पर जब वे बोलना शुरू किये, तो अंत आपबीती से किये । उन्होंने बताया --- मासी का अर्थ होता है, माँ जैसी अर्थात जो माँ के समान हो ,उसे मासी कहा जाता है । इसलिए हमारे यहाँ एक कहावत है,जो बड़ी प्रचलित है ; वह है ,’ मरे माँ, जियाये मासी” अर्थात अगर कोई बच्चा बचपन में मातृविहीन हो जाता है, तब मासी उसे ठीक पाल-पोष कर बड़ा कर लेती है । उसे माँ का अभाव खलने नहीं देती है, उसका जीवन-दीप निर्विघ्न जलता रहे , जीवन पर्यन्त मासी ,अपने स्नेह-आँचल की आढ़ किये रखती है । तभी तो मासी को शील और स्नेह का भंडार कहा जाता है । लेकिन देश, काल और अवसर के अनुकूल अब मासी की परिभाषा बदलने लगी है । तुलसीदास जी कहते हैं- सत्य कहहिं कवि नारि सुभाऊ । सब बिधि अगहु अगाध दुराऊ ॥
निज प्रीति बिंदू बरुकु गहि जाई । जानि न जाइ, नारी गति भाई ॥
अर्थात स्त्री का स्वभाव सब प्रकार से पकड़ में न आने योग्य, अथाह और भेद भरा होता है । अपनी परछाहीं भले ही पकड़ी जाय, पर स्त्रियों की गति ,पकड़ में नहीं आती, भाई !
ईश्वर का आशीर्वाद कहिये या अभिशाप कि मेरे पोते को भी एक डॉक्टर मासी है , जो उसकी माँ से छोटी है । देखने में सूरत से जितनी अच्छी है, दिल की उतनी ही बुरी है । दोनों बहनों का प्यार आज भी दूध और पानी जैसा बरकरार है । मुन्ने की माँ अर्थात मेरी बहू ( इन्दु ) का कहना है कि उसी ने अपनी बहन का नाम मनसी रखा , क्योंकि वह बचपन से ही इन्दू के मनोनुकूल रही है । जिस तरह इन्दु, सम्मिलित परिवार पसंद नहीं करती ,ठीक उसी तरह मनसी भी अपने सास-ससुर के नाम ,ब्राह्मण भोज करवा चुकी है । दोनों बहनों में से किसी को भी, परिवार का सुयश नष्ट होने या नरक में जाने का भय नहीं है । बुद्धि में नीच मगर चाह में दोनों ऊँची हैं । कपट पूर्ण प्यार जताने में दोनों ही माहिर हैं । ससुराल वालों के प्रति निष्ठुरता ,तो उनमें सीमा तक भरी हुई है । बावजूद हम दोनों पति-पत्नी, इन्दु और उसके बच्चे को ,अपनी जान से भी ज्यादा प्यार करते हैं । बेटे के भय से नहीं, अपने माता-पिता के दिये संस्कार से । मुन्ना का पिता साल के छ: महीने , नौकरी के लिए देश से बाहर रहता है । उस समय दोनों की देख-भाल की जिम्मेदारी मुझी पर होती है । बच्चे को स्कूल दे आना, लाना, बाजार से जरूरी चीजें लाकर देना, सभी कुछ मेरे ही मत्थे रहता है । बावजूद मेरी बहू ,हम दोनों की ओर पीठ रखकर चलती है । दो रोटी बनाकर देना तो दूर, साथ रहने तक की इजाजत नहीं दी । हम दोनों पति-पत्नी , किसी तरह जीवित हैं ।
लेकिन जानते हो किशन, इतने सारे अपमानों के बावजूद मैं अपने रत्न (पोते ) को गोद में उठाकर निहाल हो जाता हूँ । मुझे लगता है, मानो संसार की सारी सम्पत्ति मेरे पैरों के नीचे है । उस सुख के सामने स्वर्ग-सुख वृथा है । तुमको कैसे बताऊँ, मेरे मन की सारी अभिलाषाएँ, उसी बालक पर जाकर जमा हो जाती है । मुझे अपना अभाव, अपनी दरिद्रता, अपना दुर्भाग्य, ये सभी पैने काँटे, फ़ूल से प्रतीत होते हैं । अगर मेरी कोई कामना है ,तो यह है कि मेरे पोते के साथ कभी कोई बुरा न हो । मेरे इस स्वभाव को देखकर दुनिया मुझ पर हँसती है , कहती है ---- ’रामलाल, तुम एक प्रोफ़ेसर होकर भी पहले दर्जे के बेवकूफ़ हो । जिस बहू ने तुमको अपने बेटे से बेगाना किया, तुम उसी की चिंता रात-दिन लिये रहते हो ।” ”मैं दुनिया को कैसे समझाऊँ कि मैंने जिस बेटे को अपने रक्त से सींचा है, उसे कैसे त्याग दूँ ? ऐसे भी ,आज मैं जिंदा हूँ तो उसके कुछ काम आ जाता हूँ । लेकिन कल जब मैं नहीं रहूँगा, तब भी तो उसकी गृहस्थी चलेगी । जिस ईश्वर ने दो हाथ दिये, वह दूसरों के मोहताज नहीं रह सकता; ये तो हर माँ – बाप की कल्पना होती है, कि उनके संतान को कोई कष्ट न उठाना पड़े, जिस तरह उन्हें धक्के खाने पड़े । वे कठिनाइयाँ ,उनकी संतान को न झेलनी पड़े । बहू हमें लोभी, स्वार्थी कहती है, उसकी हमें परवाह नहीं , क्योंकि वह पराये की संतान है, लेकिन जब अपनी ही संतान, अनादर करे, तब सोचो, अभागे माँ- बाप पर क्या बीतती है ? मुझे मालूम होता है, मेरा सारा जीवन निष्फ़ल हो गया । जिस आशा से पाई-पाई जमाकर उसे पाला-पोषा, पढ़ाया-लिखाया, बड़ा किया, उसके बड़े होते ही सारी आशायें मिट्टी की गीली भीत की तरह ढ़ह गईं ।’
मामा कहते थे—’कई बार दिल मेरा कहता है--- रामलाल, इतना करने के बावजूद भी,( जिसके लिये खून- पसीना बहाया ) अगर तुमको उससे मान नहीं मिलता है, तो ऐसे रिश्ते को त्याग क्यों नहीं देते ? बहू गृह-स्वामिनी है, घर का संचालन उसके अधीन है, तुम्हारे अधीन नहीं । देखते नहीं, घर के एक-एक तिनके पर उसका अहंकार कैसे झलकता है , जैसे यह सब उसी की बदौलत है । यहाँ की हर वस्तु, उसके अभिमान की वस्तु लगती है ; उस स्वामिनी के प्रत्यक्ष सच से भी तुमको अपनी आत्मा पर धक्का नहीं लगता । तुम बुजुर्ग, पढ़े-लिखे एक प्रोफ़ेसर हो, तुमको भी समझाने के लिए किसी युक्ति की जरूरत पड़ेगी ? आगे उन्होंने बताया---’एक दिन मैं कुछ सब्जियाँ और दूध पहुँचाने बहू के घर गया । देखा—मुन्ना विस्तर पर लेटा,बुखार से तप रहा रहा है । वह कुछ न बोलकर भी, आँखों से वह सब कुछ बता दिया, जो उसकी माँ को बताना चाहिये था । बच्चे का इस कदर आत्म-समर्पण, मुझे विचलित कर दिया । मैंने बहू से कहा--- ऐसे तुम्हारी मर्जी, लेकिन मेरा सुझाव है कि मुन्ने को किसी डॉक्टर से दिखा देना अच्छा रहेगा । बहू अनमना सा उत्तर में बोली--- देखती हूँ , मेरी बहन मनसी और उसके पति, दोनों ही डॉक्टर हैं, उन्हें फ़ोन करती हूँ । आप चिंता न करें, सब ठीक हो जायगा ।’
मैं दीन भाव से एक बार फ़िर रूककर बोला – आज रविवार है, डॉक्टर कहीं नहीं मिलेगा । अगर वे लोग देखते हैं, तो बड़ा अच्छा होगा । इस पर बहू तुनक पड़ी , बोली---- अच्छा होगा, आपको शक है, कि वे लोग नहीं देखेंगे ? मनसी मेरी पहचानवाली नहीं, बल्कि मेरी अपनी सहोदर बहन है, आप देखना चाहते हैं ,दो मिनट रूकिये, मैं उसे फ़ोन लगाती हूँ । इन्दिरा ने मनसी का नम्बर डायल करते हुए कहा--- मनसी ! तुम अभी मेरे घर आ जाओ, मुन्ना की तबीयत बहुत खराब है । अच्छा होता, कि तुम दोनों, पति-पत्नी आ जाते । उधर से क्या उत्तर आया, यह तो इन्दिरा ने मुझे नहीं बताया, लेकिन पूछने पर बोली----उसके पति और वो,दोनों नाइट ड्यूटी से लौटे हैं । अभी दोनों ही सो रहे हैं, इसलिए अभी नहीं आ सकेंगे ; लेकिन हाँ कुछ दवाईयाँ उसने लिखवाई है, बोली--- इसे खरीदकर खिला दो, ठीक हो जायगा । अगर नहीं हुआ तो फ़ोन करना ।
बहू की बातों पर मुझे रोना आ गया । मैं अपने अंगोछे से अपना आँसू पोछते हुए बोला--- मुन्ना को देखे बिना, उसने दवाई लिखवा दी, यह कैसा हुआ ? नहीं—नहीं, चलो, इसे अस्पताल ले चलते हैं, क्योंकि मुन्ना की हालत कुछ ठीक नहीं है । मेरे अंत:करण में क्रांति का तूफ़ान उठ रहा था । मेरा बश चलता तो आज मनसी और उसके पति पर दिल का सारा गुब्बार निकाल देता , कहता----ऐसे ही लोग इस पेशे को बदनाम किये हुए हैं । मेरा सिर से पैर तक बारुद बन गया था, लेकिन शोले शरीक बहू के सामने, बारुद धरा रह गया । मैंने व्यथित कंठ से कहा----बहू, जल्दी करो ; बच्चे को डाक्टर के पास ले चलें । लगभग आध घंटे में हमलोग डॉक्टर के पास पहुँच गये । डाक्टर ने बच्चे को देखा, बोला --- अच्छा किया, जो इसे आपलोग यहाँ जल्दी ले आये , बच्चे को दो दिन के लिए भर्ती कराना होगा । अभी ब्लड , यूरीन ,सब टेस्ट होगा; दवा शाम से चालू होगी । आखिर वही हुआ, मुन्ना को दो दिन अस्पताल में ही रहना पड़ा, मगर ऊपर वाले की कृपा से मुन्ना ठीक हो गया । मनसी को जब यह मालूम हुआ कि मुन्ना ठीक होकर घर आ गया है,तब वह मिलने आई और बोली--- बेटा, तुम्हें क्या हो गया था ? आपकी मासी बड़ी चिंतित हो गई थी । मैंने बीच में टोकते हुए कहा—सचमुच काफ़ी चिंता की बात थी । वे तो आप सबों की दुआ और ईश्वर की दया थी जो सब ठीक हो गया । अन्यथा जब बेटा घर लौटकर आता, तो मैं उसे क्या जवाब देता ? इन लोगों के दिल से मैं भले दूर हूँ,लेकिन ये लोग मेरी नजरों से दूर नहीं हैं । फ़िर बुरे वख़्त में तो अपने ही काम आते हैं,और जो काम न आये तो, वह अपना कैसा !
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