मेरे भाग्य गगन पर दुख रहता सदा आच्छादित
मेरे दुख की गहनतम निशि का, हुआ न कभी भोर
मुक्ति की सभी युक्ति, याचना, प्रार्थना व्यर्थ गई
एक - एक कर हृदय के सभी दल मुरझ गए
मगर तकदीर की चाल में, आया न कोई फेर
हुआ न कभी ऐसा चमत्कृत नवल प्रभात
जिससे पुलकित होकर हिलता मेरा तन - तरुपात
फिर से झंकृत होता मेरी स्मृति किरणों का तार
जो सूने नभ का स्वर बन , भटकता है , बार - बार
मृत्यु की बाधाओं को पारकर दुख आता रहा सदा मेरे पास
अनगिनत रंगों के तरंगें बनकर लहराता रहा, उड़ाता रहा मेरे
जीवन का उपहास , बनता रहा कोरक से कोरक का जाल
बेधता रहा मेरे चिर मूक प्राणों को बार - बार , विश्व में
मंगलमय नव रस , पुलकित होकर झड़ -झड़कर झड़ता रहा
मगर मेरे जीवन में भयरहित समर की आई न कभी मधु रात
पहले तो नभ नील दीखा, फिर घटा पर घटा बढता गया
पल भर में ही, गगन उगलने लगा अंधकार
गरजने लगा अम्बुधि , बरसने लगा अग्नि कराल
फिर भी अम्बर झुका रहा , कँपित उर लिए
नत मस्तक होकर अवनि पर चुपचाप , मगर मेरे
जीवनकाल की पूर्वा में कभी ऍसी नमी नहीं बढी
जिससे कि मेरे जीवन की कलियाँ खिलतीं, दृगों में
खिलता सोल्लास , मनोभावों का होता मधुर मिलाप
अंतरिक्ष में ज्योतिर्मान ग्रह , नक्षत्र , तारे सभी दीखे कई बार
मगर सभी रहे एक दूजे में खींचे हुए, उनको कहाँ थी
इतनी फुर्सत कि देखें नीचे झाँककर , अधरों पर अधर
रखकर, दग्ध लहरें, फूल - फूल का चुम्बन क्यों कर रहीं
चिर मूक सजल नत -चितवन , मुख पर क्यों झूल रहे
अपनी डाली के काँटों से तरु बेंधता नहीं अपना तन
फिर सोने सा उज्ज्वल तन को, क्यों हैं ये बिंधवा रहे
अतीत को जब भी मैंने मुड़कर देखा, मेरा कलेजा काँप उठा
आज भी वहाँ चमत्कृत हो रही है, विषाद की विष- रेखा
मुसकुरा रहे हैं दुख के सकल भाव , काँप रही है सुलेखा
बाहर जग हॅ उल्लास भरा, मगर वहाँ उमर रहा है बादल काला
मरु की धधकती ज्वाला में, अब झुलस रहा है मेरा यौवन
मन का दीपक बुझ चुका है, हो गया है दिल तिमिराच्छिन्न
कहते हैं नियती नटी की नग्न छाया , प्राणि की तकदीर बनकर
प्राणों संग लिपटी, शून्य में भी नाचती रहती
मेरे धुँधले भाग्य गगन पर दुख रहा, सदैव आच्छादित
मनुज आत्मा का स्वर झंकृत होता, इसी की करुणा से
वरना मानव की औकात ही क्या है , जो रक्त - मांस
के लोथड़े में साँसें भरकर जीवित रख सके प्राणी
को बचा सके भयावहता और महानाश से
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