मेरी ही व्यथा-सिक्त चितवन जगती का है स्पंदन
मेरी ही व्यथा -सिक्त चितवन
जगती के कण-कण का है स्पंदन
तभी तो पुष्पों, पल्लवों को बनी
रहती मिटने की बेचैनी हर क्षण
तन्तु जाल में बह रही जो रस की धाराएँ
फ़ूटकर मिटना चाहतीं कोपलें बन
इतिहास बताता,जिसने भी यहाँ प्रेम किया जब तक
अपने देह निधन का द्वार पार कर चला न गया
तब तक अपने विदीर्ण प्राणों में व्रण लिए जीता रहा
अंजलि भर जल में, दूर्वा का दल उगता रहा
मगर शोणित सींचता जिस अंग तरु को, वह
जमाने के रागपूर्ण द्वेष पंक में सतत सना रहा
कभी प्राणों का अनुराग,फूल बनकर खिल न सका
कहते हैं प्रेम बना है, अश्रु और करुणा के मिश्रण से
इसलिए , यह जीवन अखंड आलोक पुंज बन न सका
नहीं तो प्रेमी तन को देह सहित व्योम में लेकर उठ नहीं जाता
प्रेमियॉं के चित्कारों और सिसकियों से यह धरा भरी नहीं होती
जीवित मुर्दों का घर यह लोक न कहलाता,रंगों के सातों
घट को उड़ेलकर,अंधियाला को रँग दिया जाता,आकाश की
शून्यता में घूमता जो विकल विभ्रांत, वह भी उतर आता
हमारी सभ्यता पर अर्द्ध मानवों का बल है
सूली पर चढाकर प्रेमी मसीहा को , हम
कहते हैं, अभी दिन का कराल दहकता है
पर देखना , रात चाँदनी शीतलमय होगी
सभ्यता के प्राणों पर इन मलिन लोगों से
कोई आभा नहीं भरनेवाली, इन्हें गंध के जग का
ग्यान नहीं है, इन्होंने केवल मरु में रेत को जलते
देखा है, गंगा की शीतल धारा का भान नहीं है
बंधनहीन होकर ,शशि ,सूरज , तारे अपनी गति में
बने रहते हैं,मगर मनुज बुद्धिबली होकर भी अकेला
समाज से विगलित होकर जी नहीं सकता
मनस्ताप मनुज चिंतित होकर शयन पर पड़ा रहता
क्रोध , शंका का श्वाद पद तन को नोचता रहता
क्षुब्ध बिखरते वदन पर, पीला-पीला फोड़ा बनकर
फिर भी मिली अपनी बेचैनी से लड़ नहीं सकता
शापित जीवन का कंकाल लिए जीवन भर भटकता रहता
अंधेरे में बैठकर उस खोखलेपन में कुछ खोजता रहता
धीरे-धीरे विरह की लहरों के दल से टकरा-टकरा कर
ओझल हो जाता, तब निर्जन तट से एक चित्र उभरता
कहता अद्भुत है ,यह प्रेम प्रवाह अंतिम साँस तक रहता
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