Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
Administrator

मृग मरीचिका

 

मृग मरीचिका


                पौष की हाड़ कंपा देने वाली रात के दो बज रहे थे| काशी को कम्बल बिना नींद नहीं आ रही थी| वह बांस के खटोले पर अपनी फटी जूट की चादर ओढ़ घुटनों को छाती से लगाए काँप रहा था, तभी उसकी नजर अपने घर के टूटे ठाठ से ऊपर आकाश पर पड़ी| वह सहम गया, भय और शंका से कंपित हो उठा| उसने बगल में सोई अपनी पत्नी, कसूरी को नींद से जगाकर कहा, ‘कसूरी, सो रही हो?’

कसूरी आँखें खोलकर आकाश की ओर देखी, बोली, ‘अभी तो सप्तर्षि आकाश में आये भी नहीं, और तुम जागकर बैठ गए; सो जाओ, सुबह अँधेरे मुँह खेत पर जाना होगा| सुना है, बेमौसम की बारिश से धान का फसल तबाह हो गया है, उसका पानी निकालना अत्यंत आवश्यक है, वरना पौधे सड़ जायेंगे|’ 

काशी मन उदास कर कहा, ‘तुम सो जाओ, मेरी आँखों में नींद कहाँ है, जो सो जाऊँ| आगे भगवान पर भरोसा रखो, सब ठीक हो जायगा, लेकिन अच्छा होता जो मेरी तरह तुम भी एक बार आकाश की शून्यता को देख लेती, वहाँ कितनी निर्जनता है, कितना अंधेरा है?’

कसूरी अनमने ढंग से ऊपर की ओर देखी, बोली, ‘बहुत अंधेरा है, मगर हम दोनों की जिंदगी से कम!’ 

काशी ने पूछा, ‘वो कैसे?’

कसूरी बोली, ‘काशी, यह अंधेरा कुछ घंटों का है, थोड़ी देर बाद यह छंट जायगा, जब सूरज उजाला लेकर आयगा| यह अंधेरा हमारी जिंदगी के अँधेरे की तरह स्थायी नहीं है, यह तो हमारे जीवन का मात्र एक आंशिक चित्र है|’

काशी बात को मोड़ देते हुए बोला, ‘कसूरी देखो, हमसे भी अधिक अभागे लोग हैं इस दुनिया में, जो वृक्ष के नीचे अपना जीवन गुजारा कर रहे हैं| कम से कम हमारे पास टूटा-फूटा ही सही, एक घर तो है, इसे तुम कम मत समझो| हमारे लिए यह एक सुरक्षित किला है| यहाँ सूरज-चाँद और हवा को छोड़कर किसी दूसरे सिरफिरों की निगाहों का पाँव तक नहीं पहुँचता; यहाँ तक पहुँचने में उनके पाँव जो लड़खड़ाने लगते हैं|’ 

काशी की बातों का क्षणिक आनन्द बड़ी जल्दी ही बीत गया और फिर वही निराशा उसके दिल पर छा गई| इस मरहम से न ही उसका दिल भरा, और न ही जिगर का दर्द मिटा| 

कसूरी बोली, ‘मैं भी मानती हूँ कि, तुम्हारे इस झोपड़े पर एक लाख महल न्योछावर है| कारण यहाँ रहकर मैंने उन चीजों को पाया, जिसे पाने के लिए कभी-कभी महल भी आँसू बहाने के लिए बाध्य होते हैं|’

काशी, लड़खड़ाई आवाज में पूछा, ‘वह क्या है कसूरी?’ 

आँखों के आँसू को, हँसी में लपेटते हुए कसूरी ने कहा, ‘औलाद, तुम भूल गए, कि हमारे एक नहीं, दो-दो औलाद हैं, जिन्हें हमने जन्म दिया है, पाला है, बड़ा किया है, अपना नेवाला खिला-खिलाकर| काशी, जहरीली हँसी हँसकर बोला, बदनसीबों के तकदीर में, औलाद नहीं होते, उनके नसीब में सिर्फ रोना और रोना, और मर जाना होता है| उनकी जिंदगी का आरम्भ और अंत कुछ नहीं होता, वे बस जीवित दीखते हैं| 

कसूरी, काशी के प्रेम में डूबी हुई, जिसे गहने और अशर्फियों के ढेर बिच्छू के डंक से लगते थे, खुली हवा के मुकाबले बंद पिंजरा कहीं ज्यादा अच्छा लगता था, निराशाभाव से जवाब दी, हम गरीब हैं, हमारे पास न ही रंग है, न ही रूप, न ही पैसे| फिर क्यों कोई हमसे हमदर्दी रखे; खून कहने को अपने हैं, बहते तो अलग-अलग शरीर में हैं|

कसूरी का जवाब सुनकर काशी का चेहरा फीका पड़ गया, यह एक ऐसा प्रश्न था, जिसका उत्तर देना, उसके लिए संसार का सबसे मुश्किल प्रश्न था!

कसूरी कुलीनता के साथ, काशी के सामने भिखारिन सी बैठी, काशी को निहारे जा रही थी, तभी काशी तीव्र कंठ से बोल उठा, अरे हो तो चुका, अब कब तक दुखड़ा रोवोगी?

कसूरी बोली, ‘जब तक ह्रदय में साँस है और साँस में वे दोनों, तब तक|’

काशी, ‘पुत्र-स्नेह ने हम दोनों को सच्चा वैरागी बना दिया| सच पूछो, तो अब मेरे लिए दुःख और सुख का अंतर कर पाना मुश्किल हो गया; दोनों ही मुझे बिच्छू के डंक की तरह डसते हैं| हम दरिद्रता के पैरों तले दबे हुए अपने क्षीण जीवन को मृत्यु के हाथों से छीनने में प्राण दे रहे हैं| क्यों नहीं अच्छा होता, कि रोज की सिसकती जिंदगी का अंत कर दिया जाय; वफ़ा की उम्मीद थी जिससे, वही दगा करता है| मैं वह दरख़्त हूँ, जिसे कभी पानी नहीं मिला| जानती हो कसूरी, जिंदगी का वह उम्र जब इंसान को सहारे की सबसे अधिक जरूरत पड़ती है, तब मैं अकेला हूँ, सूनेपन की लाठी के सहारे चलता हूँ, गिरता हूँ तो उठ नहीं पाता हूँ; जब कि हमलोग उतने बूढे नहीं हैं, जितना दीखते हैं|’ यह सब बक्त की बेरुखी है, कसूरी| ठीक ही कहा जाता है, ‘जरूरत पर पौधे को तरी मिल जाय, तो जिंदगी भर के लिए उसकी जड़ें मजबूत हो जाती हैं| अच्छी खुराक और देखभाल न पाने से हम दोनों की जिंदगी खुश्क हो गई है| कभी-कभी लगता है, यह संसार किसी न्यायी ईश्वर का नहीं है, वरना जो चीज जिसे जब मिलनी चाहिए, मिलती क्यों नहीं है? ‘

कसूरी विषाद भरे स्वर में उत्तर दी, बोली, ‘काशी, आकाश पर से अंधेरा हंट चुका है, सूर्य दिखाई देने लगा है| उठो, हाथ-मुँह धोकर कल की कुछ बासी रोटियाँ पड़ी हैं, खा लो| खेत पर जाना है; देरी, फसल को बर्वाद कर देगा| जीवन की पूंजी, जो मेरा निज का अभिमान था, वह तो चूर-चूर हो गया; अब इसे बर्वाद न होने दो|’

काशी, हाथ-मुँह धोकर, सूखी बासी रोटी चबाने लगा| रूखे होठों पर एक-दो दाने चिपक गए, जो उस दरिद्र मुख में जाना अस्वीकार कर रहे थे, तभी टीन के ग्लास में पानी लेकर कसूरी आई, बोली, ‘पानी पी लो, होठ से चिपके रोटी के दाने हट जायेंगे|’ 

काशी, कसूरी के हाथ से पानी लेकर गट-गटकर एक ही साँस में पी गया, और बोला, ‘पेट भर गया; अब तुम भी कुछ खा लो, तब तक मैं अँगोछा लेकर आता हूँ; कल ही उसे धोया था, बाहर सूख रहा है|’ फिर कुछ देर ठहर गया, बोला, ‘जानती हो कसूरी, ऊपरवाले की व्यापक सत्ता मलिन वेशभूषा को देखते ही दुरदुरा कर भगा देता है| हमें खेत पर मन्दिर होकर जाना है, तो क्यों नहीं रुककर उससे भी बातें करते चलें|’ यह पता है, जिसका कोई नहीं अपना होता, उसका ईश्वर भी बेगाना हो जाता है| 

कसूरी, अपने दुःख-तरंग को शांत करती हुई मन ही मन कही, ‘संसार के विश्वासघात की ठोकरें तुम्हारे ह्रदय को विक्षिप्त कर दी हें, जिसके कारण तुम ईश्वर से विमुख होते चले जा रहे हो, वरना, जीवन के लघुदीप को अनंत की धारा में बहा देने की यह बुरी सोच पहले तो तुममें नहीं थी|’ 

काशी दुखी हो, करुण स्वर में बोला, ‘ठीक कहती हो कसूरी, पहले मेरी महत्वाकांक्षा, मेरे उन्नतशील विचार मुझे बराबर दौड़ाते रहे| मैं अपनी कुशलता, और सफलता पर अगड़ाते हुए, अपने भाग्य को धोखा देता रहा था, और अपने आप को विजयी सोच रहा था| समझ रहा था, एक दिन सुखी होकर, संतुष्ट होकर चैन से घर में बैठ जाऊँगा, जब वे बड़े हो जायेंगे, किन्तु वह मेरी मृग-मरीचिका थी|’

Powered by Froala Editor

LEAVE A REPLY
हर उत्सव के अवसर पर उपयुक्त रचनाएँ