मुट्ठी में भरकर लाई हूँ अपने भविष्य की राख
मुट्ठी में भरकर अपने भविष्य की
राख आज आई हूँ तुम्हारे पास
क्योंकि नयन खोजते हैं फूलों का लोक
और जीभ माँगता स्वाद ,दिवाकर
की किरणें जहाँ नहीं पहुँच पातीं
वहाँ घूमना चाहता, मन मृणाल
कहती संसार की निस्तब्धता जहाँ
जाकर मिल रही है पूर्णता के साथ
मुझे ले चलो उसके पास , इसलिए
चित्त के चंचल वेग को शांत करने
मैं चली आई हूँ आज तुम्हारे पास
क्योंकि पतित कोई जन्म से हो या
कर्म से, पिता की गोद में बैठकर रोने का
संतानों को जन्म प्रदत्त है अधिकार
तुम तो जगत पिता हो, जीवन रण से हारा
इस संतान को गोद में उठा लो, सोम पिलाओ
या जहर तुम्हारी मर्जी, मगर क्या है इसका
स्वाद ,इस दुनिया में आने से पहले बतला दो
या फिर तुम कह दो, तुम सृष्टि की
केवल विनोद सामग्री मात्र हो
पंचभूतों को आनंद देने तुम यहाँ आई हो
कालग्रास होने तुम , दुनिया में जनमी हो
तुम व्यर्थ अपनी काल्पनिक क्षुधा से
तन को हाँक - हाँक़कर उस स्वच्छ सलिल
को मैला करना चाहती हो,जिसमें जग को
बिम्बित होता है,किरण अगोचर जिसे तुम
माया से प्रेरित होकर पाना चाहती हो
तब अनागत के तिमिर को चीरकर देखने से
क्या फायदा, अच्छा हुआ अब मरण के
बाद जीने की बेकली नहीं रहेगी, अमरता
से लगी आस के टूटने का डर नहीं रहेगा
माफ करना माँगने आई थी मैं तुमसे
बहुत कुछ , लेकिन अब न मागूँगी
आज की रात सोने दो, अब न जगूँगी
गलत ही कहता आया जग, प्राणी की
साँसों में सुगंध तुम भरते हो, जब कि
इसे काल से माँग कर लाया है, तभी तो
वह जिधर ले जाने का संकेत हमें देता है
कुआँ हो या खाई, हम उधर चले जाते हैं
मुझे तुम्हारे पास जाने से पहले अपने हृदय
तलातल में उतरकर अवगाहन करना चाहिये था
मनुज को देने के लिए तुम्हारे पास अनल
के सिवा और क्या-क्या है, जान लेना चाहिए था
क्योंकि बरसाते हो जो तुम गगन से, वो
मही से उठकर ही तो जाता है, फिर नहीं
देने का हठ तुम छोड़ क्यों नहीं देते हो
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